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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशके गाथा १ परसमयवक्तव्यतायां नियतिवादाधिकारः भवति, युक्तिस्तु लेशतः प्राग्दर्शितैव प्रदर्शयिष्यते च । पृथक्-पृथक्, नारकादिभवेषु शरीरेषु वेति, अनेनाऽप्यात्माऽद्वैतवादिनिरासोऽवसेयः । के पुनस्ते पृथगुपपन्नाः ? तदाह - जीवाः प्राणिनः सुखदुःखभोगिनः, अनेन च पञ्चस्कन्धातिरिक्तजीवाभावप्रतिपादकबौद्धमतापक्षेपः कृतो द्रष्टव्यः । तथा ते जीवाः पृथक् पृथक् प्रत्येकदेहे व्यवस्थिताः सुखं दुःखं च वेदयन्ति अनुभवन्ति । न वयं प्रतिप्राणि-प्रतीतं सुख - दुःखानुभवं निह्नमहे, अनेन चाकर्तृवादिनो निरस्ता भवन्ति । अकर्तर्य्यविकारिण्यात्मनि सुखदुःखानुभवानुपपत्तेरितिभावः तथैतदस्माभिर्नापलप्यते 'अदुवे 'ति अथवा ते प्राणिनः सुखं दुःखं चानुभवन्ति 'विलुप्यन्ते' उच्छिद्यन्ते स्वायुषः प्रच्याव्यन्ते स्थानात्स्थानान्तरं संक्राम्यन्त इत्यर्थः । ततश्चौपपातिकत्वमप्यस्माभिस्तेषां न निषिध्यत इति श्लोकार्थः ||१||
टीकार्थ इस सूत्र का अनन्तर' सूत्र और परम्पर 2 सूत्रों के साथ सम्बन्ध बताना चाहिए । अनंतर सूत्र के साथ इसका सम्बन्ध यह है- अनन्तर सूत्र में कहा है कि पञ्चभूत-वादी तथा पञ्चस्कन्धवादी आदि की बुद्धि मिथ्यात्व के द्वारा नष्ट हो गयी है, इसलिए वे मिथ्या पदार्थ में आग्रह रखते हैं । अतः वस्तुतत्त्व के ज्ञान से रहित वे लोग व्याधि, मृत्यु और वृद्धता से युक्त संसार रूपी चक्र में ऊँच-नीच योनियों में भ्रमण करते हुए अनन्तकाल तक क गर्भ से दूसरे गर्भ में निवास करते रहेंगे । वही यहाँ भी, "नियतिवादी, अज्ञानवादी और चतुर्विध कर्म को बन्धनदाता नहीं माननेवाले अन्य दर्शनियों का संसार चक्र में भ्रमण करना और एक गर्भ से दूसरे गर्भ में निवास करना बतलाया जाता है ।" "बुज्झिज्जा" इत्यादि सूत्र परम्पर सूत्र हैं। उसके साथ इसका सम्बन्ध यह है- "बुज्झिज्जा" इत्यादि सूत्र में कहा है कि- "जीव को बोध प्राप्त करना चाहिए ।" यहाँ भी नियतिवादियों ने जो कहा है, उसका बोध प्राप्त करना चाहिए । ( यह इस सूत्र का उक्तसूत्र के साथ सम्बन्ध है । इसी तरह बीच के सूत्रों के साथ इसका भी सम्बन्ध जैसा संभव हो लगा लेना चाहिए । इस प्रकार पूर्व और उत्तर सूत्रों के साथ सम्बन्ध रखनेवाले इस सूत्र का अर्थ, विस्तार सहित कहा जाता है- यहाँ 'पुनः' शब्द, पूर्ववादियों से नियतिवादी की विशेषता दिखलाता है, कोई नियतिवादी यह कहते हैं, जिनके कर्म की अविवक्षा की जाती है, वे धातु भी अकर्मक हो जाते हैं । इसलिए यहाँ 'आख्यातम्' इस पद में भाव में निष्ठा प्रत्यय हुआ है और उसके योग में 'एगेसिं' इस पद में कर्तरि षष्ठी हुई है । इस प्रकार इसका अर्थ यह है कि- इन नियतिवादियों ने यह कहा है अर्थात् उनका आशय है, यह अर्थ है । युक्ति से जीवों की सिद्धि होती है । इस कथन से पञ्चभूतात्मवादी और तज्जीवतच्छरीरवादी का मत खण्डित हो जाता है । जिस युक्ति से पूर्वोक्त मत खण्डित हो जाता है, वह युक्ति पहले कुछ बता दी गयी है और आगे चलकर भी बतायी जायगी । जीवगण अलग-अलग नरक आदि भावों में अथवा शरीरों में जन्म धारण करते हैं । इस कथन से आत्माऽद्वैतवादी के मत का निराकरण समझना चाहिए । युक्ति से पृथक्-पृथक् सिद्ध होनेवाले वे कौन हैं ? वे जीव अर्थात् प्राणी हैं, जो सुख-दुःख भोगते हैं । इस कथन से पञ्चस्कन्ध से भिन्न जीव को न माननेवाले बौद्धों के मत का खण्डन समझना चाहिए। वे जीव, प्रत्येक शरीर में अलग-अलग निवास करते हुए सुख-दुःख भोगते हैं । प्रत्येक प्राणियों के अनुभव से सिद्ध सुख और दुःख के अनुभव को हम मिथ्या नहीं कह सकते । इस कथन से जीव को कर्ता नहीं माननेवालों के मत का खण्डन समझना चाहिए क्योंकि पापपुण्य का कर्ता तथा विकार सहित आत्मा न होने पर सुख-दुःख का अनुभव नहीं हो सकता है । अथवा वे प्राणी सुख-दुःख को भोगते हैं और अपनी आयु से अलग हो जाते हैं अर्थात् एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान ( भव) को भेज दिये जाते हैं । इसको भी हम मिथ्या नहीं कहते हैं । इस प्रकार जीवों के एक भव से दूसरे भव में जाने का हम निषेध नहीं करते हैं, यह श्लोक का अर्थ है ?
• तदेवं पञ्चभूतास्तित्वादिवादिनिरासं कृत्वा यत्तैर्नियतिवादिभिरा श्रीयते तच्छ्लोकद्वयेन दर्शयितुमाह
इस प्रकार पञ्चभूतवादी आदि के मत का निराकरण करके नियतिवादी जिस सिद्धान्त को मानते हैं, उसे दो श्लोकों के द्वारा दर्शाने के लिए सूत्रकार कहते हैं
1. जो सूत्र, किसी सूत्र के अत्यन्त निकट होता है अर्थात् बीच में दूसरे सूत्र का व्यवधान नहीं होता है, वह सूत्र अनन्तर सूत्र कहलाता है। 2. जिन सूत्रों के मध्य में दूसरे सूत्र भी होते हैं, उनको परम्परसूत्र कहते हैं ।
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