________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशके गाथा १
अथ प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते
उक्तः प्रथमोद्देशकस्तदनु द्वितीयोऽभिधीयते, तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके स्वसमयपरसमयप्ररूपणा कृता, इहाप्यध्ययनार्थाधिकारत्वात् सैवाभिधीयते, यदिवाऽनन्तरोद्देशके भूतवादादिमतं प्रदर्श्य तन्निराकरणं कृतं, तदिहापि तदवशिष्टनियतिवाद्यादिमिथ्यादृष्टिमतान्युपदर्श्य निराक्रियन्ते । अथवा प्रागुद्देशकेऽभ्यधायि यथा बन्धनं बुध्येत तच्च त्रोटयेदिति तदेव च बन्धनं नियतिवाद्यभिप्रायेण न विद्यत इति प्रदर्श्यते तदेवमनेकसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्य्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्य सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् -
परसमयवक्तव्यतायां नियतिवादाधिकारः
प्रथम उद्देशक कहा जा चुका । इसके पश्चात् दूसरा कहा जाता है । इसका प्रथम उद्देशक के साथ सम्बन्ध यह है- प्रथम उद्देशक में स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है, वही इस दूसरे उद्देशक में भी की जाती है, क्योंकि प्रथम अध्ययन का अर्थाधिकार स्वसिद्धान्त तथा परसिद्धान्त की व्याख्या ही है । अथवा प्रथम अध्ययन में भूतवादी आदि का मत बताकर उसका खण्डन किया गया है, अब इस अध्ययन में उनसे शेष रहे नियतिवादी आदि मिथ्यादृष्टियों का मत बताकर उसका खण्डन किया जायगा । अथवा प्रथम उद्देशक में कहा है कि- "मनुष्य को बन्धन का स्वरूप जानकर उसे तोड़ना चाहिए" परंतु नियतिवादी आदि परतीर्थियों के सिद्धान्तानुसार बन्धन का ही अस्तित्व नहीं है । यह इस उद्देशक में दिखाया जायगा । इस प्रकार अनेक सम्बन्ध से आये हुए इस उद्देशक के चार अनुयोगद्वारों का वर्णन करके सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुण के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह है
आघायं पुण एगेसिं, उववण्णा पुढो जिया ।
वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणओ
118 11
छाया
आख्यातं पुनरेकेषामुपपन्नाः पृथग्जीवाः । वेदयन्ति सुखं दुःखमथवा लुप्यन्ते स्थानतः ॥
व्याकरण - (आघायं) क्रिया (पुण) अव्यय ( एगेसिं) कर्ता ( उववण्णा) जीव का विशेषण (पुढो) अव्यय (जिया) कर्ता (सुहं दुक्खं) कर्म (वेदयंति) क्रिया (अदुवा) अव्यय (लुप्पंति) क्रिया (ठाणओ) अपादान ।
-
अन्वयार्थ - (पुण) फिर (एगेसिं) किन्हीं का (आघायं) कहना है कि (जिया) जीव (पुढो) अलग-अलग हैं (उववण्णा) यह युक्ति से सिद्ध होता है । (सुहं दुक्खं) वे जीव पृथक्-पृथक् ही सुख दुःख (वेदयंति) भोगते हैं (अदुवा) अथवा (ठाणओ) अपने स्थान से (लुप्पंति) अन्यत्र जाते हैं ।
भावार्थ - किन्ही का कहना है कि जीव, पृथक्-पृथक् हैं, यह युक्ति से सिद्ध होता है तथा वे पृथक्-पृथक् ही सुख-दुःख भोगते हैं अथवा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं ।
टीका अस्य चानन्तरपरम्परसूत्रैः सम्बन्धो वक्तव्यः, तत्रानन्तरसूत्र सम्बन्धोऽयम् - इहानन्तरसूत्रे, इदमभिहितंयथा पञ्चभूतस्कन्धादिवादिनो मिथ्यात्वोपहतान्तरात्मानोऽसद्ग्रहाभिनिविष्टाः परमार्थावबोधविकलाः सन्तः संसारचक्रवाले व्याधिमृत्युजराकुले उच्चावचानि स्थानानि गच्छन्तो गर्भमेष्यन्त्यन्वेषयन्ति वाऽनन्तश इति, तदिहापि नियत्यज्ञानिज्ञानचतुर्विधकर्मापचयवादिनां तदेव संसारचक्रवालभ्रमणगर्भान्वेषणं प्रतिपाद्यते । परम्परसूत्रसंबन्धस्तु 'बुज्झेज्जे' - त्यादि तेन च सहायं सम्बन्धः- तत्र बुध्येतेत्येतत् प्रतिपादितम्, इहापि यदाख्यातं नियतिवादिभिस्तद् बुध्येत, इत्येवं मध्यसूत्रैरपि यथासंभवं सम्बन्धो लगनीय इति । तदेवं पूर्वोत्तरसम्बन्धसम्बद्धस्यास्य सूत्रस्याधुनाऽर्थः प्रतन्यते पुनः शब्दः पूर्ववादिभ्यो विशेषं दर्शयति, नियतिवादिनां पुनरेकेषामेतदाख्यातं, अत्र च 'अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्तीति' ख्याते र्धातोर्भावे निष्ठाप्रत्ययः, तद्योगे कर्तरि षष्ठी ततश्चायमर्थः - तैर्नियतिवादिभिः पुनरिदमाख्यातं, तेषामयमाशय इत्यर्थः । तद्यथा - 'उपपन्नाः' युक्त्या घटमानका इति अनेन च पञ्चभूततज्जीवतच्छरीरवादिमतमपाकृतं
1. पुणिहेगेसिं चू० ।
४७