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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १४ परसमयवक्तव्यतायां तज्जीवतच्छरीराकारकवादिमतखण्डनाधिकारः
'न हु' नैवाफलत्वं द्रुमाऽभावे साध्ये हेतुर्भवति, नहि यदैव फलवांस्तदैव द्रुमः अन्यदा त्वद्रुम इति भावः, एवमात्मनोऽपि सुप्ताद्यवस्थायां यद्यपि कथञ्चिनिष्क्रियत्वं तथापि नैतावता त्वसौ निष्क्रिय इति व्यपदेशमर्हति, तथा स्तोकफलत्वमपि न वृक्षाऽभावसाधनायालं, स्वल्पफलोऽपि हि पनसादिवृक्षव्यपदेशभाग्भवत्येव, एवमात्माऽपि स्वल्पक्रियोऽपि क्रियावानेव, कदाचिदेषा मतिर्भवतो भवेत्-स्तोकक्रियो निष्क्रिय एव, यथैककार्षापणधनो न धनित्व (व्यपदेश)मास्कन्दति, एवमात्माऽपि स्वल्पक्रियत्वादक्रिय इति, एतदप्यचारु, यतोऽयं दृष्टान्तः प्रतिनियतपुरुषापेक्षया 'चो (ऽत्रो) पगम्यते समस्तपुरुषापेक्षया वा ? तत्र यद्याद्यः पक्षः, तदा सिद्धसाध्यता, यतः- सहस्रादिधनवदपेक्षया निर्धन एवासौ, अथ समस्तपुरुषापेक्षया तदसाधु, यतोऽन्यान् जरच्चीवरधारिणोऽपेक्ष्य कार्षापणधनोऽपि धनवानेव, तथाऽऽत्मापि यदि विशिष्टसामोपेतपुरुषक्रियापेक्षया निष्क्रियोऽभ्युपगम्यते न काचित्क्षतिः सामान्यापेक्षया तु क्रियावानेव, इत्यलमतिप्रसङ्गेन, एवमनिश्चिताकालफलत्वाख्यहेतुद्वयमपि न वृक्षाऽभावसाधकम् इत्यादि योज्यम्, एवमदुग्धत्वस्तोक-दुग्धत्वरूपावपि हेतू न गोत्वाऽभावं साधयतः, उक्तन्यायेनैव दार्टान्तिकयोजना कार्येति ॥३५॥॥१४॥
टीकार्थ - तज्जीवतच्छरीरवादी और अकारकवादी इन दोनों में से पहले, शरीर से अभिन्न आत्मा माननेवाले जो लोग, पूर्वोक्त रीति से आत्मा को भूतों से अभिन्न मानते हैं, उनका मत तिरस्कृत किया जाता है । इस विषय में उन्होंने जो यह कहा है कि- "शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है" यह असंगत है, क्योंकि आत्मा शरीर से भिन्न है, इस बात को सिद्ध करनेवाला प्रमाण पाया जाता है । वह प्रमाण, यह है- यह शरीर, किसी कर्ता द्वारा किया हुआ है, क्योंकि यह आदिवाला और नियत आकारवाला है । इस जगत् में जो-जो पदार्थ, आदिवाला, तथा नियत आकारवाला होता है. वह किसी कर्ता का किया हआ होता है, जैसे घट । जो पदार्थ, किसी कर्ता का किया हुआ नहीं होता है वह, आदिवाला तथा नियत आकारवाला नहीं होता है, जैसे आकाश । अतः जो पदार्थ, आदिवाला तथा नियत आकारवाला होता है, वह अवश्य किसी कर्ता का किया हुआ होता है, यह व्याप्ति है । जहाँ व्यापक नहीं होता है, वहाँ व्याप्य भी नहीं होता है (इसलिए यदि शरीर किसी का किया हुआ न होगा तो वह आदिवाला तथा नियत आकारवाला भी न हो सकेगा क्योंकि किसी कर्ता से किया जाना व्यापक धर्म है और आदिवाला तथा नियत आकारवाला होना व्याप्य धर्म है) यह, सर्वत्र योजना करनी चाहिए। तथा इन्द्रियों का कोई अधिष्ठाता अवश्य है, क्योंकि इन्द्रियाँ करण (साधन) हैं । इस जगत् में जो-जो करण (साधन) होता है, उसका अधिष्ठाता कोई अवश्य होता है, जैसे दण्ड आदि साधनों का अधिष्ठाता कुम्हार होता है । जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं है, वह करण नहीं हो सकता है, जैसे आकाश का कोई अधिष्ठाता नहीं है, इसलिए वह करण नहीं है । इन्द्रियाँ करण हैं, इसलिए उनका अधिष्ठाता आत्मा है, वह आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है । तथा इन्द्रिय और विषयसमूह को ग्रहण करनेवाला कोई अवश्य है, क्योंकि इनका ग्राह्य-ग्राहक भाव देखा जाता है । जहाँ-जहाँ ग्राह्य-ग्राहक भाव होता है, वहाँ-वहाँ अवश्य कोई ग्रहण करनेवाला पदार्थ होता है, जैसे सणसी और लोहपिण्ड को ग्रहण करनेवाला उनसे भिन्न लोहार होता है । अतः इन्द्रियरूप साधनों से जो विषयों को ग्रहण करता है, वह इन्द्रिय और विषयों से भिन्न आत्मा है । तथा इस शरीर का भोग करनेवाला कोई अवश्य है, क्योंकि यह शरीर भात आदि के समान भोग्य पदार्थ है । पूर्वोक्त दृष्टान्त में कुम्हार आदि, मूर्त, अनित्य तथा अवयवी हैं । यह देखकर आत्मा भी मूर्त, अनित्य
और अवयवी क्यों नहीं ? ऐसी विरुद्ध शङ्का नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संसारी आत्मा, कर्म से परस्पर मिलकर कथञ्चित् मूत्ते आदि भी माना जाता है ।
तथा यह जो कहा है कि- "परलोक में जानेवाला कोई पदार्थ नहीं है", यह भी अयुक्त है क्योंकि उसी दिन जन्मे हुए बच्चे की स्तन पीने की इच्छा देखी जाती है । वह इच्छा पहले पहल नहीं हुई है किन्तु वह, उसके पूर्व की इच्छा से उत्पन्न हुई है, क्योंकि वह इच्छा है। (जो-जो इच्छा होती है, वह दूसरी इच्छापूर्वक ही होती है ।) जैसे कुमार (५-७ वर्ष के बालक) की इच्छा । तथा बालक का विज्ञान, अन्यविज्ञानपूर्वक है, क्योंकि वह विज्ञान है । जो-जो विज्ञान है, वह अन्य विज्ञान-पूर्वक ही होता है, जैसे कुमार का विज्ञान । आशय यह है किउसी दिन का जन्मा हुआ बच्चा जब तक "यह वही स्तन है" ऐसा निश्चय नहीं कर लेता है, तब तक रोना 1. चोच्यते प्र०।