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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा २०
परसमयवक्तव्यतायां अफलवादीत्वाधिकारः दुःखों से मुक्त हो जाते हैं । यहाँ 'अपि' शब्द संभावना अर्थ में है। सूत्र में आर्षत्वात् बहुवचन के स्थान में एकवचन किया हैं । पञ्चभूतवादी और तज्जीवतच्छरीरवादी का यह आशय है कि- जो लोग हमारे दर्शन का आश्रय लेते हैं, वे गृहस्थ रहते हुए, शिरोमुण्डन, दण्ड- चर्मधारण, जटाधारण, काषायवस्त्र और गुदड़ी धारण, केश का लुञ्चन, नंगा रहना, तप करना, आदि दुःख रूप शरीर क्लेशों से बच जाते हैं। जैसा कि वे कहते हैं- (तपांसि ) अर्थात् तप तो नाना प्रकार की यातना (दुःख भोग) है और संयम धारण करना भोग से वंचित रहना है । तथा अग्निहोत्र आदि कर्म लड़कों के खेल के समान व्यर्थ है । मोक्ष को स्वीकार करनेवाले सांख्यवादी आदि इस प्रकार आशा करते हैं कि- अकर्तृत्ववाद, अद्वैतवाद और पञ्चस्कन्धात्मवाद को प्रतिपादन करनेवाले हमारे दर्शन को अङ्गीकार करके जो लोग प्रव्रज्या धारण करते हैं, वे जन्म, जरा, मरण, गर्भ - परम्परा तथा अनेक - विध अतितीव्र शारीरिक और मानसिक दुःखों से मुक्त होकर सब बखेड़ों से रहित मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥१९॥
इदानीं तेषामेवाफलवादित्वाविष्करणायाह
पूर्वोक्त मतवादी, सभी अफलवादी हैं । यह प्रकट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं ते णावि संधिं णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते ओहंतराऽऽहिया ॥ २० ॥ छाया - ते नाऽपि सन्धिं ज्ञात्वा, न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते ओघन्तरा आख्याताः ॥
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व्याकरण - (ते) सर्वनाम, कर्ता का विशेषण (ण अवि) अव्यय (संधि) कर्म (णच्चा) पूर्वकालिक क्रिया (धम्मविओ) जन का विशेषण (वाइणो) कर्म ( एवं) अव्यय (न) अव्यय ( ओहंतरा) कर्म का विशेषण (आहिया ) कर्म वाच्य क्रिया ।
अन्वयार्थ - (ते) वे पूर्वोक्त मतवादी - अन्यदर्शनी - (संधि) सन्धि को ( णावि) नहीं (णच्चा) जानकर क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । (ते जणा) तथा वे लोग (धम्मविओ) धर्म जाननेवाले (न) नहीं हैं ( एवं) पूर्वोक्त रूप (वाइणो ) अफलवाद का समर्थन करनेवाले (जे ते उ) जो अन्यदर्शन हैं (ते) उन्हें तीर्थंकर ने ( ओहंतरा) संसार को पार करनेवाला (न आहिया) नहीं कहा है ।
भावार्थ - पूर्वोक्त अन्यदर्शनी, सन्धि को जानकर क्रिया में प्रवृत्त नहीं हैं तथा अफलवाद का समर्थन करनेवाले वे, संसार को पार करनेवाले नहीं कहे गये हैं ।
टीका - पञ्चभूतवाद्याद्याः नाऽपि नैव सन्धिं छिद्रं विवरं स च द्रव्यभावभेदाद् द्वेधा, तत्र द्रव्यसन्धिः कुड्यादेः, भावसन्धिश्च ज्ञानावरणादिरूपकर्मविवररूपः । तमज्ञात्वा ते प्रवृत्ताः, णमिति वाक्यालङ्कारे, यथाऽऽत्मकर्मणोः सन्धिर्द्विधाभावलक्षणो भवति तथा अबुद्धवैव ते वराका दुःखमोक्षार्थमभ्युद्यता इत्यर्थः । यथा त एवंभूतास्तथा प्रतिपादितं लेशतः प्रतिपादयिष्यते च । यदिवा सन्धानं सन्धि: - उत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानं तदज्ञात्वा प्रवृत्ता इति । यतश्चैवमतस्ते न सम्यग् धर्मपरिच्छेदे कर्त्तव्ये विद्वांसो - निपुणाः 'जनाः' पञ्चभूतास्तित्वादिवादिनो लोका इति । तथाहिक्षान्त्यादिको दशविधो धर्मस्तमज्ञात्वैवाऽन्यथाऽन्यथा च धर्मं प्रतिपादयन्ति यत्फलाभावाच्च तेषामफलवादित्वं तदुत्तरग्रन्थेनोद्देशकपरिसमाप्तयवसानेन दर्शयति- 'ये ते त्विति' तु शब्दश्चशब्दार्थे, य इत्यस्यानन्तरं प्रयुज्यते । ये च ते एवमनन्तरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयः, 'ओघो' भवौघः - संसारस्तत्तरणशीलास्ते न भवन्तीति श्लोकार्थः ॥ २० ॥
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टीकार्थ पूर्वोक्त, पञ्चभूत आदि को बतानेवाले अन्यदर्शनी, सन्धि नहीं जानते हैं । सन्धि, छिद्र का नाम है । वह द्रव्य और भाव भेद से दो प्रकार का होता है । इनमें दीवार आदि के जोड़ को 'द्रव्यसन्धि' कहते हैं और ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के विवर को 'भावसन्धि' कहते हैं । उस सन्धि को जाने बिना ही वे अन्यदर्शनी क्रिया में प्रवृत्त हैं । 'णं' शब्द, वाक्यालङ्कार में आया है आशय यह है कि- आत्मा जिस तरह कर्म रहित हो सकता है, उसे जाने बिना ही वे दुःख से मुक्त होने के लिए प्रवृत्त होते हैं । जिस प्रकार वे अन्य दर्शनी ऐसे हैं, सो संक्षेप से पहले कह दिया गया है और आगे चलकर भी कहा जायगा । अथवा उत्तरोत्तर अधिक अधिक पदार्थ जानना सन्धि कहलाता है । उस सन्धि को जाने बिना ही वे क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । वे पञ्चभूतवादी आदि पूर्वोक्त सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हैं इसलिए वे धर्म का सम्यग् निर्णय करने में समर्थ नहीं
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