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परसमयवक्तव्यतायां बौद्धमताधिकारः
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १६
है। असत् की उत्पत्ति नहीं होती है ।
इस प्रकार मृत्पिण्ड में भी घट विद्यमान रहता है, क्योंकि घट बनाने के लिए मृत्पिण्ड को ही ग्रहण करते हैं । यदि असत् की भी उत्पत्ति होती तो वह घट जिस किसी पदार्थ से भी बना लिया जाता, उसके लिए खासकर मृत्पिण्ड लेने की ही आवश्यकता न होती । अतः कारण में विद्यमान कार्य्यं ही उत्पन्न होता है यह निश्चित है । इस प्रकार पृथिवी आदि पाँच महाभूत और छट्ठा आत्मा ये सभी पदार्थ, नित्य है । ये अभाव रूप में होकर भाव रूप में नहीं आते हैं। जगत् में जो उत्पत्ति और विनाश व्यवहार होता वह भी वस्तु की प्रकटता और अप्रकटता को लेकर ही होता है । अत एव कहा है कि
‘“नासतो” असत् पदार्थ का भाव नहीं हैं अर्थात् जो वस्तु नहीं है, वह होती नहीं है और सत् पदार्थ का कभी अभाव नहीं होता है।
इसका उत्तर देने के लिए नियुक्तिकार, पूर्वोक्त " को वेएई" इत्यादि पूर्वोक्त [३४] गाथा ही कहते हैं- यदि सभी पदार्थों को नित्य माना जाय तो कर्तृत्वपरिणाम नहीं हो सकता और आत्मा का कर्तृत्व परिणाम न होने पर उसको कर्मबन्ध भी नहीं हो सकता और कर्मबन्ध न होने पर कौन सुख - दुःख भोग सकता है ? । अर्थात् कोई भी सुखदुःख नहीं भोग सकता । परंतु ऐसा मानने पर कृतनाश दोष आता है अर्थात् किये हुए कर्म का फल भोगना पड़ता है । यह सर्वसम्मत सिद्धान्त नष्ट होता है । तथा असत् की उत्पत्ति न मानने पर पूर्व भव को छोड़कर दूसरे भावों में उत्पत्ति रूप इस आत्मा की जो पाँच प्रकार की गति बतायी जाती है, वह नहीं हो सकती है। ऐसी दशा में मोक्षगति न होने के कारण दीक्षा आदि क्रिया का अनुष्ठान करना निरर्थक ही ठहरता है । तथा इस आत्मा को उत्पत्ति-विनाश रहित स्थिर, एक स्वभाववाला मानने पर इसका देव, मनुष्य आदि भवों में जाना, आना नहीं हो सकता है तथा विस्मृति न होने से जातिस्मरण आदि ज्ञान नहीं हो सकता है, अतः आत्मा को एकान्त नित्य कहना मिथ्या है । तथा सत् ही उत्पन्न होता है, यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि यदि वह सर्वथा सत् तो उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है और यदि उत्पत्ति होती है तो वह सर्वथा सत् नहीं हो सकता है । अत एव कहा है कि
"कर्मगुणव्यपदेशाः " अर्थात् जब तक घट आदि पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती है, तब तक उनके द्वारा जलाहरण आदि कार्य्य नहीं किये जा सकते हैं तथा उनके गुण भी नहीं पाये जाते है एवं उनका घट आदि नाम भी नहीं होता है । ( मृत्पिण्ड से जल नहीं लाया जा सकता है और वह घट के गुणों से युक्त भी नहीं होता है तथा वह घट नाम से नहीं कहा जाता है ।) तथा घट बनानेवाले की क्रिया में प्रवृत्ति भी घट न होने पर ही होती है, घट बन जाने पर नहीं होती है । इसलिए उत्पत्ति के पूर्व कार्य्य को असत् समझना चाहिए ।
अतः सभी पदार्थों को कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य मानना चाहिए और "सदसत्कार्य्यवाद" सिद्धान्त मानना चाहिए। कहा है कि
" सर्वव्यक्तिषु" अर्थात् सभी पदार्थ क्षण-क्षण बदलते रहते हैं तथापि उनमें भेद प्रतीत नहीं होता है । इसका कारण यह है कि पदार्थों का अपचय और उपचय यद्यपि होता रहता है परन्तु उनकी आकृति और जाति सदा वही बनी रहती है । तथा
"नान्वयः " कारण के साथ कार्य्य का एकान्त अभेद नहीं है क्योंकि उनमें भेद प्रतीत होता है तथा एकान्त भेद भी नहीं है क्योंकि कार्य में कारण अनुगत रहता है, अतः मृत्तिका के साथ भेदाभेद सम्बन्ध रखनेवाला घट एक दूसरी जाति का पदार्थ है || १६ |
साम्प्रतं बौद्धमतं पूर्वपक्षयन्निर्युक्तिकारोपन्यस्तमफलवादाधिकारमाविर्भावयन्नाह
- अब सूत्रकार, बौद्ध मत को पूर्वपक्ष रूप से कहते हुए नियुक्तिकार द्वारा कहे हुए अफलवाद को प्रकट करने के लिए कहते हैं
पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो ।
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