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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ११
परसमयवक्तव्यतायां तज्जीवतच्छरीरवाद्यधिकारः
व्याकरण - (पत्तेअं) अव्यय । (कसिणे) आत्मा का विशेषण (आया) संति क्रिया का कर्ता (जे बाला जे पंडिआ) 'जे' सर्वनाम 'बाला' ‘पंडिआ’ आत्मा के विशेषण हैं। (संति) क्रिया (पिच्चा) पूर्वकालिक क्रिया । (न) अव्यय (ते) सर्वनाम, आत्मा का बोधक है । (सत्तोववाइया) 'उववाइया' सत्त्व का विशेषण । 'सत्ताः' कर्ता (न) अव्यय ( अत्थि ) क्रिया ।
भावार्थ - जो अज्ञानी हैं और जो ज्ञानी हैं, उन सबका आत्मा भिन्न-भिन्न है, एक नहीं है। मरने के पश्चात् आत्मा नहीं रहता है । अतः परलोक में जानेवाला कोई नित्य पदार्थ नहीं है ।
टीका तज्जीवतच्छरीरवादिनामयमभ्युपगमः - यथा पञ्चभ्यो भूतेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते अभिव्यज्यते वा, तेनैकैकं शरीरं प्रति प्रत्येकमात्मानः 'कृत्स्नाः' सर्वेऽप्यात्मान एवमवस्थिताः, ये 'बाला' अज्ञा ये च ‘पण्डिताः' सदसद्विवेकज्ञास्ते सर्वे पृथग्व्यवस्थिताः, नह्येक एवात्मा सर्वव्यापित्वेनाऽभ्युपगन्तव्यो, बालपण्डिताद्यविभागप्रसङ्गात् ।
ननु प्रत्येकशरीराश्रयत्वेनात्मबहुत्वमार्हतानामपीष्टमेवेत्याशङ्कयाह - 'सन्ति' विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते तदभावे तु न विद्यन्ते, तथाहि - कायाकारपरिणतेषु भूतेषु चैतन्याविर्भावो भवति, भूतसमुदायविघटने च चैतन्यापगमो, न पुनरन्यत्र गच्छच्चैतन्यमुपलभ्यते, इत्येतदेव दर्शयति- 'पिच्चा न ते संतीति' 'प्रेत्य' परलोके न ते आत्मानः 'सन्ति' विद्यन्ते, परलोकानुयायी शरीराद्भिन्नः स्वकर्मफलभोक्ता न कश्चिदात्माख्यः पदार्थोऽस्तीति भावः । किमित्येवमत आह‘नत्थि सत्तोववाइया' ‘अस्ति' शब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टव्यः । तदयमर्थः - 'न सन्ति' न विद्यन्ते 'सत्त्वाः' प्राणिन उपपातेन निर्वृत्ता औपपातिका - भवाद्भवान्तरगामिनो न भवन्तीति तात्पर्य्यार्थः । तथाहि तदागमः - “विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य सज्ञाऽस्तीति” ।
ननु प्रागुपन्यस्तभूतवादिनोऽस्य च तज्जीवतच्छरीरवादिनः को विशेष इति ? अत्रोच्यते, भूतवादिनो भूतान्येव कायाकारपरिणतानि धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्ति, अस्य तु कायाकारपरिणतेभ्यो भूतेभ्यश्चैतन्याख्य आत्मोत्पद्यतेऽभिव्यज्यते वा, तेभ्यश्चाभिन्न इत्ययं विशेषः ||११||
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टीकार्थ तज्जीवतच्छरौवादियों का यह मन्तव्य है- शरीर रूप में परिणत पांच महाभूतों से चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है, अथवा प्रकट होती है । अतः प्रत्येक शरीर में प्रत्येक आत्मा जुदा-जुदा है । सभी आत्मा, इसी तरह स्थित हैं । अज्ञानी और सत् तथा असत् का भेद जाननेवाले ज्ञानी, सभी भिन्न-भिन्न हैं । सर्वव्यापी एक ही आत्मा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि ऐसा मानने पर ज्ञानी और अज्ञानी का विभाग नहीं हो सकता । कहते हैं कि'आर्हतों को भी प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् स्थित बहुत आत्मा मानना अभीष्ट ही है, फिर तुम उक्तमतवादी का ही यह सिद्धान्त क्यों कहते हो ?" यह शङ्का करके सूत्रकार कहते हैं कि- "संति" अर्थात् जब तक शरीर विद्यमान रहता है, तब तक ही आत्मा भी स्थित रहता है, परन्तु शरीर का अभाव होने पर आत्मा का भी अभाव हो जाता है, क्योंकि शरीर रूप में परिणत पञ्चमहाभूतों से चैतन्य प्रकट होता है और उनके अलग-अलग होने पर वह चैतन्य नष्ट हो जाता है, क्योंकि शरीर से निकलकर अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य नहीं देखा जाता है, यह तज्जीवतच्छरीरवादियों का मत है । यही दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि - "पिच्चा न ते संति" । अर्थात् अपने कर्मों का फल भोगनेवाला परलोकगामी शरीर से भिन्न कोई आत्मा नाम का पदार्थ नहीं है, यह तज्जीवतच्छरीरवादियों का आशय है। ऐसा क्यों है ? इसलिए कहते हैं कि- 'नत्थि सत्तोववाइया' । इस वाक्य में 'अस्ति' शब्द तिङन्तप्रतिरूपक निपात है । उसे बहुवचनार्थक समझना चाहिए । अतः इसका अर्थ यह है- औपपातिक'अर्थात् एक भव से दूसरे भव में जानेवाले प्राणी नहीं हैं । यह तज्जीवतच्छरीरवादी का तात्पर्य्य है । जैसा कि
1. विचरने प्र० । 2. पलक्ष्यते प्र० । 3. “स एव जीवस्तदेव शरीरमिति वदितुं शीलमस्येति तज्जीवच्छरीरवादी" अर्थात् वही जीव है और वही शरीर है, जो यह बतलाता है. उसे 'तज्जीवतच्छरीरवादी' कहते हैं । यद्यपि पूर्वोक्त भूतवादी भी शरीर को ही आत्मा कहता है, तथापि उसके मत में पाँच भूत ही शरीर रूप में परिणत होकर सब क्रियाएँ करते हैं । परन्तु तज्जीवतच्छरीरवादी के मत में यह नहीं है । वह शरीर रूप में परिणत पाँच भूतों से चैतन्य - शक्ति की उत्पत्ति मानता है । यही इसका भूतवादी से भेद है ।
3. एक भव से दूसरे भव में जाना 'उपपात' कहलाता है और जो एक भव से दूसरे भव में जाता है, उसे 'औपपातिक' कहते हैं ।
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