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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १३
परसमयवक्तव्यतायामकारकवाद्यधिकारः - इदानीमकारकवादिमताभिधित्सयाऽऽह
- अब सूत्रकार अकारकवादियों का मत बताने के लिए कहते हैं - कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई। एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगब्भिआ
॥१३॥ छाया - कुवंश्च कारयश्चैव, सर्वां कुर्वन्न विद्यते । एवमकारक आत्मा, एवं ते तु प्रगल्भिताः ॥
व्याकरण - (कुव्वं) आत्मा का विशेषण प्रथमान्त पद है । (कारयं) यह भी कर्ता का विशेषण प्रथमान्त है । (सव्वं) कर्म द्वितीयान्त है। (चेव) अव्यय है। (विज्जई) क्रिया है । (न, एवं) अव्यय । (अकारओ) आत्मा का विशेषण । (अप्पा) कर्ता । (एवं) अव्यय (ते) अकारकवादियों का परामर्शक सर्वनाम (पगमिआ) अकारकवादियों का विशेषण ।
अन्वयार्थ - (कुव्वं) क्रिया करनेवाला । (कारयं चेव) और दूसरे द्वारा क्रिया करानेवाला तथा (सब्बं) सब क्रियाओं को (कुव्वं) करनेवाला (अप्पा) आत्मा (न विज्जई) नहीं है । (एवं) इस प्रकार (अकारओ) आत्मा अकारक यानी क्रिया का कर्ता नहीं है (ते उ) वे अकारकवादी (एवं) इस प्रकार कहने की (पगब्मिआ) धृष्टता करते हैं।
भावार्थ - आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता है और दूसरे के द्वारा भी नहीं कराता है तथा वह सब क्रियायें नहीं करता है । इस प्रकार वह आत्मा 'अकारक' यानी क्रिया का कर्ता नहीं है, ऐसा अकारकवादी सांख्य आदि कहते हैं।
टीका - 'कुर्वन्निति स्वतन्त्रः कर्ताऽभिधीयते, आत्मनश्चामूर्तत्त्वान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृत्वानुपपत्तिः, अत एव हेतोः कारयितृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति, पूर्वश्चशब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको द्वितीयः समुच्चयार्थः, ततश्चात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते, नाप्यन्यं प्रवर्तयति, यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन [जपास्फटिक-न्यायेन च] भुजिक्रियां करोति तथाऽपि समस्तक्रियाकर्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतद्दर्शयति- 'सव्वं कुव्वं ण विज्जई' त्ति 'सर्वां' परिस्पन्दादिकां देशाद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणां क्रियां कुर्वनात्मा न विद्यते, सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्येवात्मनो निष्क्रियत्वमिति, तथा चोक्तम्
__ "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा साङ्ख्यनिदर्शने" इति । 'एवम्' अनेन प्रकारेणात्माऽकारक इति, 'ते' साङ्ख्याः , तु शब्दः पूर्वेभ्यो व्यतिरेकमाह, ते पुनः साङ्ख्या एवं 'प्रगल्भिताः' प्रगल्भवन्तो धाष्टर्यवन्तः सन्तो भूयोभूयस्तत्र तत्र प्रतिपादयन्ति, यथा “प्रकृतिः करोति, पुरुष उपभुङ्क्ते, तथा बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते" इत्याद्यकारकवादिमतमिति ॥१३॥
टीकार्थ - यहाँ 'कुर्वन्' पद के द्वारा स्वतंत्र कर्ता का कथन किया है । आत्मा, अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है, इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता है और इसी कारण वह दूसरे के द्वारा क्रिया करानेवाला भी नहीं हो सकता है। इस गाथा में पहला 'च' शब्द आत्मा के भूत और भविष्यत् कर्तृत्व का निषेधक है और दूसरा 'च' शब्द समुच्चयार्थक है । इस प्रकार इस गाथा का अर्थ यह है कि- आत्मा स्वयं किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता है और दूसरे को भी किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं करता है, आत्मा मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय और जपास्फटिक न्याय से यद्यपि स्थिति क्रिया और भोग क्रिया करता है, तथापि वह समस्त क्रिया का कर्ता नहीं है । यह सूत्रकार (उनकी मान्यता) दिखलाते हैं- "सव्वं कुव्वं न विज्जई" अर्थात् वह आत्मा, एक देश से अन्य देश में जाना आदि सभी क्रियाओं को नहीं करता है, क्योंकि सर्वव्यापी और अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह वह निष्क्रिय है । कहा भी है- (अकर्ता निर्गुणो) अर्थात् सांख्यवादियों के मत में आत्मा अकर्ता निर्गुण और कर्म फल का भोक्ता 1. किसी दर्पण में प्रतिबिम्बित मूर्ति अपनी स्थिति के लिए प्रयत्न नहीं करती है किन्तु प्रयत्न के बिना ही वह उस चित्र में स्थित रहती है। ___ इसी तरह आत्मा अपनी स्थिति के लिए प्रयत्न किये बिना ही स्थित रहता है । यही मुद्रा प्रतिबिम्बोदय न्याय का अर्थ है । 2. स्फटिकमणि के पास लाल फूल रख देने पर वह लाल-सा प्रतीत होता है । वस्तुतः वह लाल नहीं किन्तु शुक्ल ही रहता है, तथापि लाल फूल की छाया पड़ने से वह लाल हुआ सा जान पड़ता है, इसी तरह सांख्यमत में आत्मा भोगरहित है तथापि बुद्धि के संसर्ग से बुद्धि का भोग आत्मा में प्रतीत होता है । इसी कारण आत्मा का भोग माना जाता है । यही जपास्फटिक न्याय का अर्थ है ।