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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ११ परसमयवक्तव्यतायां तज्जीवतच्छरीरवाद्यधिकारः स्यादिति । एतदर्थसंवादित्वात्प्राक्तन्येव निर्युक्तिकृद्गाथाऽत्र व्याख्यायते, तद्यथा- पञ्चानां पृथिव्यादीनां भूतानामेकत्र कायाकारपरिणतानां चैतन्यमुपलभ्यते, यदि पुनरेक एवात्मा व्यापी स्यात्तदा घटादिष्वपि चैतन्योपलब्धिः स्यात्, न चैवं, तस्मान्नैक आत्मा । भूतानां चान्यान्यगुणत्वं न स्याद्, एकस्मादात्मनोऽभिन्नत्वात् । तथा पञ्चेन्द्रियस्थानानां - पञ्चेन्द्रियाश्रितानां ज्ञानानां प्रवृत्तौ सत्यामन्येन ज्ञात्वा विदितमन्यो न जानातीत्येतदपि न स्याद् यद्येक एवात्मा स्यादिति ॥ १०॥
टीकार्थ इस गाथा में 'एवं' शब्द, पूर्वोक्त आत्माद्वैतवाद को प्रदर्शित करने के लिए आया है । पुरुष (ब्रह्म) को जगत् का कारण बतानेवाले कोई, इस प्रकार कहते हैं । वे, कैसे हैं ? यह सूत्रकार बतलाते हैं वे मन्द-जड़-अर्थात् सम्यग् विवेक से रहित हैं । उनकी मूर्खता यह है कि- वे युक्तिरहित एकात्मवाद को मानते हैं । एकात्मवाद इस प्रकार युक्तिरहित है- यदि आत्मा एक ही है, बहुत नहीं है तो प्राणियों के विनाश रूप व्यापार में आसक्त जो किसान आदि प्राणी हैं, वे संरम्भ, समारम्भ 2 और आरम्भ के द्वारा स्वयं पाप उपार्जन करके अशुभ प्रकृति रूप असाता का उदयरूप तीव्र दुःख को अथवा तीव्र दुःख के अनुभवस्थान नरक आदि को प्राप्त करते हैं। यहाँ बहुवचन के अर्थ में आर्ष होने के कारण एकवचन किया है, इसलिए इसका यह अर्थ है कि - जो आरम्भ में आसक्त हैं, वे ही नरक आदि स्थानों को अवश्य प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं करते। यह नहीं हो सकता किन्तु एक के अशुभ कर्म करने पर शुभ कर्म करनेवाले सभी पुण्यात्माओं को भी तीव्र दुःख होना चाहिए, क्योंकि सब का आत्मा एक है, परन्तु यह नहीं देखा जाता है, किन्तु जो पुरुष, निन्दित कर्म करता है, वही इस लोक में उस कर्म के अनुसार फल भोगता हुआ पाया जाता है, दूसरा नहीं ।
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तथा आत्मा को सर्वव्यापी मानने पर बन्ध और मोक्ष का अभाव होगा । एवं जिसको शास्त्र का उपदेश किया जाता है और जो शास्त्र का उपदेश करता है, उन दोनों का भेद न रहने के कारण शास्त्र की रचना भी नहीं हो सकती। इस विषय से मिलनेवाली होने के कारण पूर्वोक्त निर्युक्तिगाथा का ही यहाँ भी व्याख्यान किया जाता है । जैसे किशरीर रूप में परिणत पृथिवी आदि पाँच भूतों में चैतन्य पाया जाता है, परन्तु यदि एक ही व्यापक आत्मा है, तो घट आदि में भी चैतन्य पाया जाना चाहिए । परन्तु घट आदि में चैतन्य नहीं पाया जाता है, इसलिए आत्मा एक नहीं है । तथा एक आत्मा होने पर पृथिवी आदि भूतों का भिन्न-भिन्न गुण नहीं हो सकता है क्योंकि वे, एक आत्मा से भिन्न नहीं हैं । तथा यदि एक ही आत्मा हो तो पाँच इन्द्रियों के द्वारा ज्ञात होनेवाले रूपादि विषयों में दूसरे पुरुष के द्वारा जाने हुए विषय को दूसरा पुरुष नहीं जानता है, यह भी नहीं हो सकता ||१०||
साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीरवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह
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अब सूत्रकार, तज्जीवतच्छरीरवादी के मत को पूर्वपक्ष में रखने के लिए कहते हैं। पत्तेअं कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिआ ।
संति पिच्चा न ते संति, नत्थि सत्तोववाइया
छाया
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प्रत्येकं कृत्स्ना आत्मनः, ये बाला ये च पण्डिताः । सन्ति प्रेत्य न ते सन्ति, न सन्ति सत्त्वा औपपातिकाः ॥
।।११।।
1. प्राणियों के विनाश का विचार करना 'संरम्भ' है। 2. जिससे प्राणियों का विनाश होता है वह व्यापार करना समारम्भ है। 3. सावद्य अनुष्ठान करना आरम्भ है। 4. सब प्राणियों का एक आत्मा है, यह सिद्धान्त ठीक नहीं है क्योंकि जो पुरुष पाप कर्म करता है, वही दुःख भोगता है, दूसरा नहीं भोगता है । परन्तु सब का आत्मा एक होने पर जो पापी नहीं है, उस आत्मा को भी दुःख होना चाहिए, क्योंकि पापी का आत्मा के साथ उसके आत्मा का कोई भेद नहीं है । तथा आत्मा को सर्व व्यापक मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर रूप में परिणत पाँच भूतों में ही चैतन्य पाया जाता है, घट-पट आदि पदार्थों में नहीं । अतः आत्मा सर्वव्यापक नहीं है तथा देवदत्त के ज्ञान को यज्ञदत्त नहीं जानता है, यह निर्विवाद है । यदि सब का आत्मा एक है तो देवदत्त का ज्ञान, यज्ञदत्त को भी होना चाहिए परन्तु नहीं होता है, अतः सबका एक आत्मा मानना अयुक्त है। यही यहाँ के मूल और टीका का आशय है ।