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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना नहीं कथन करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा से अनंत भाग न्यून हैं और कथन करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा से अनंत भाग न्यून अर्थ सूत्रों में कहे हुए हैं । बात ऐसी ही है, इसीलिए आगम में बहुत प्रकार से उन अर्थो का ग्रहण है। कोई अर्थ सूत्रों में साक्षात् गृहीत हैं और कोई अर्थापत्तिन्याय से जाने जाते हैं । अथवा सूत्रों मे कहीं अर्थ के एक देश का ग्रहण है और कहीं समस्त अर्थों का ग्रहण है । जिन पदों के द्वारा उन अर्थों का प्रतिपादन किया गया है, वे पद अत्यंत सिद्ध हैं, साध्य नहीं हैं तथा वे अनादि हैं । इस समय उत्पन्न करने योग्य नहीं हैं । अत एव यह द्वादशाङ्गी शब्द और अर्थ रचना द्वारा विदेहक्षेत्र में नित्य है । तथा भरत और ऐरावत में भी शब्दरचना द्वारा ही यह, प्रति तीर्थंकर के समय की जाती है, नहीं तो ओर तरह (अर्थ से) से यह नित्य ही है। इस कथन से "उच्चारण करने के पश्चात् ही वर्ण नष्ट हो जाते हैं, इसलिए यह द्वादशाङ्गी अनित्य है।" यह मत खण्डित समझना चाहिए ॥२१||नि०।।
साम्प्रतं सूत्रकृतस्य श्रुतस्कन्धाध्ययनादिनिरूपणार्थमाहदो चेव सुयक्वथा अज्झयणाई च हुंति तेवीसं । तेत्तिसुद्देसणकाला, आयाराओ दुगुणमंगं ॥२२॥ नि०
___ द्वावत्र श्रुतस्कन्धौ, त्रयोविंशतिरध्ययनानि, त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालाः, ते चैवं भवन्ति- प्रथमाध्ययने चत्वारो द्वितीये त्रयस्तृतीये चत्वार एवं चतुर्थपञ्चमयोझै द्वौ, तथैकादशस्वेकसरकेष्वेकादशैवेति प्रथमश्रुतस्कन्धे । तथा द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्ताध्ययनानि तेषां सप्तैवोद्देशनकालाः, एवमेते सर्वेऽपि त्रयस्त्रिंशदिति । एतच्चाचाराङ्गाद् द्विगुणमङ्गं षट्त्रिंशत्पदसहस्रपरिमाणमित्यर्थः ॥२२॥नि०॥
अब नियुक्तिकार, सूत्रकृताङ्गसूत्र के श्रुतस्कन्ध और अध्ययन आदि को बताने के लिए कहते हैं
इस सूत्रकृताङ्गसूत्र में दो श्रुतस्कन्ध तेईस अध्ययन तथा तैंतीस उद्देशनकाल हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथम अध्ययन में चार उद्देश, दूसरे अध्ययन में तीन उद्देश और तीसरे अध्ययन में चार उद्देश हैं । इसी तरह चतुर्थ और पञ्चम अध्ययन में दो-दो उद्देश हैं । शेष ग्यारह अध्ययनों में एक-एक ही उद्देश हैं । यह प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन और उद्देशों का प्रमाण है । दूसरे श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन और सात ही उद्देश हैं । इस प्रकार दोनों श्रुतस्कन्ध के कुल मिलाकर तेईस अध्ययन हैं। यह सूत्र आचाराङ्ग सूत्र से द्विगुण है । इसके पद छत्तीस हजार हैं ॥२२॥नि०॥
साम्प्रतं सूत्रकृताङ्गनिक्षेपानन्तरं प्रथमश्रुतस्कन्धस्य नामनिष्पन्ननिक्षेपाभिधित्सयाऽऽहनिक्वेयो गाहाए चउव्यिहो छव्यिहो य सोलससु । निवेवो य सुयंमि य खंथे य चउव्यिहो होड़ ॥२३॥ नि०
इहाद्यश्रुतस्कन्धस्य गाथाषोडशक इति नाम, गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यस्मिन् श्रुतस्कन्धे स तथेति । तत्र गाथायाः नामस्थापनाद्रव्यभावरूपश्चतुर्विधो निक्षेपः, नामस्थापने प्रसिद्ध । द्रव्यगाथा द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्यमितिकृत्वा' नोआगमतस्तु त्रिधा-ज्ञशरीरद्रव्यगाथा, भव्यशरीरद्रव्यगाथा, ताभ्यां विनिर्मुक्ता च सत्तट्ठतरू विसमे ण से हया ताण छट्ठ णह जलया । गाहाए पच्छद्धे भेओ छट्ठोत्ति इक्ककलो" १- इत्यादिलक्षण-लक्षिता पत्रपुस्तकादिन्यस्तेति । भावगाथाऽपि द्विविधा- आगम-नोआगमभेदात्, तत्राऽऽगमतो गाथापदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव गाथाख्यमध्ययनम्, आगमैकदेशत्वादस्य । षोडशकस्याऽपि नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषोडशकं ज्ञशरीरभव्यशरीरविनिर्मुक्तं सचित्तादीनि षोडशद्रव्याणि । क्षेत्रषोडशकं षोडशाकाशप्रदेशाः । कालषोडशकं षोडश समयाः एतत्कालावस्थायि 1. जिसके बिना जिस की सिद्धि नहीं होती है, उससे उसका आक्षेप करना अर्थापत्ति है। 2. सप्त तरवः (चतुर्मात्रा गणाः) अष्टमः (गुरुः) विषमे न (जगणः) तस्याघातकास्तासां षष्ठे नही (चतुर्लघवः) जो वा । गाथायाः पथार्थे भेदः षष्ठ एककल इति ॥१॥
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