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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ७
परसमयवक्तव्यतायाश्चार्वाकाधिकारः
टीकार्थ
कोई पुरुष इन पूर्वोक्त ग्रन्थों को छोड़कर अपनी रुचि के अनुसार रचे हुए ग्रन्थों में बद्ध हैं । परंतु कोई ही ऐसे हैं सब नहीं । "ये लोग पूर्वोक्त ग्रन्थों का उल्लंघन करते हैं ।" इसका तात्पर्य यह है कि ये लोग पूर्वोक्त ग्रन्थों में कहे हुए सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं करते हैं । पूर्वोक्त ग्रन्थों में यह कहा है कि "जीव का अस्तित्व होने पर ज्ञानावरणीय आदि कर्म, बंधन है और उस कर्म के कारणरूप मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद आदि तथा परिग्रह और आरंभ आदि भी बन्धन हैं । इस बन्धन का सम्यग्दर्शन आदि उपाय के द्वारा खण्डन होता है और मोक्ष का भी अस्तित्व है, इत्यादि, " परंतु कोई शाक्यभिक्षु और बृहस्पतिमतानुयायी ब्राह्मण इन अर्हत्कथित ग्रन्थों को अस्वीकार करके परमार्थ को न जानते हुए अनेक प्रकार से अपने सिद्धान्तों में अत्यंत आग्रह रखते हैं। शाक्य लोग कहते हैं कि
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"सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और ज्ञान का आधारभूत कोई आत्मा नहीं हैं किन्तु एक विज्ञान ही नाना रूपो में परिणत होता रहता है । तथा सभी संस्कार (पदार्थ) क्षणिक हैं इत्यादि । "
एवं सांख्यवादी पदार्थों की व्यवस्था इस प्रकार करते हैं- "सत्व, रज और तमस् की साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं । उस प्रकृति से महत् यानी बुद्धितत्त्व उत्पन्न होता है । बुद्धि से अहंकार और अहंकार से सोलह गण उत्पन्न होते हैं । उन सोलह गण से पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं । चैतन्य, पुरुष का स्वरूप है इत्यादि ।" वैशेषिक कहते हैं कि- "द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छ: पदार्थ हैं । नैयायिक, अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा प्रमाण प्रमेयादि पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह मानते हैं । मीमांसक कहते है कि- "अज्ञात अर्थ को बोधित करनेवाला वैदिकवाक्य 'चोदना' कहलाता है, उस चोदना के द्वारा बोधित अर्थ धर्म है। कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं है तथा मुक्ति का भी अभाव है इत्यादि । चार्वाकों ने इस प्रकार कहा है कि परलोक में जानेवाला, पाँच महाभूतों से भिन्न कोई जीव नाम का पदार्थ नहीं है और पाप-पुण्य भी नहीं हैं इत्यादि । इस प्रकार का सिद्धान्त मानकर ये लोकायतिक ( चार्वाक) पुरुष, इच्छा मदनरूप कामभोग में आसक्त रहते हैं । उन्होंने कहा भी है ( एतावानेव ) चार्वाकाचार्य्य बृहस्पति अपनी बहिन से कहते हैं कि
हे भद्रे ! जितना देखने में आता है उतना ही लोक हैं । जैसे मूर्ख मनुष्य पृथ्वी पर उखड़े हुए मनुष्य के पंजे को भेडिये के पैर के चिह्न बताते हैं, उसी तरह लोग स्वर्ग-नरक आदि की मिथ्या कल्पना किया करते हैं ||१||
हे सुन्दरि । उत्तमोत्तम भोजन खाओ और पीओ । जो समय चला गया वह तुम्हारा नहीं है, हे भीरु ! गया हुआ समय लौटकर नहीं आता है तथा यह शरीर भी पाँच महाभूतों का पुस ही है ॥२॥
इस प्रकार अपने सिद्धान्तों से वासित हृदयवाले अन्यदर्शनी, भगवान् अरिहन्त के कहे हुए ग्रन्थों को छोड़कर परमार्थ को न जानते हुए अपने ग्रन्थों में बद्ध और कामभोग में आसक्त रहते हैं ||६||
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साम्प्रतं विशेषेण सूत्रकार एव चार्वाकमतमाश्रित्याह
अब सूत्रकार ही विशेष रूप से चार्वाकमत का आश्रय लेकर कहते हैं
संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया ।
पुढवी आउ तेऊ वा वाउ आगासपंचमा
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छाया - सन्ति पञ्च महाभूतानीहैकेषामाख्यातानि । पृथिव्यापस्तेजो वा वायुराकाशपञ्चमानि ॥ व्याकरण - (संति) क्रिया (पंच महब्भूया) कर्ता । (इह) अधिकरणशक्तिप्रधान अव्यय (मेगेसिं) कर्तृषष्ठ्यन्त (आहिया ) महाभूत का विशेषण । शेष सब महाभूत के विशेषण (वा) अव्यय ।
अन्वयार्थ - (इह) इस लोक में (पंच) पाँच (महब्सूया) महाभूत (संति) हैं (एगेसिं) किन्हीने (आहिया ) कहा है । ( पुढवी) पृथिवी ( आउ)
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