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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ८
परसमयवक्तव्यतायां चार्वाकाधिकारः का लक्षण नहीं घटता है और प्रमाण का लक्षण न घटने से किसी भी अनुमान आदि में विश्वास नहीं किया जा सकता है । कहा भी है
(हस्तस्पर्शादिव) जैसे विषममार्ग में, हाथ के स्पर्श से दौड़ते हुए अंधे मनुष्य का गिरना दुर्लभ नहीं है, इसी तरह अनुमान के बल से पदार्थ की सिद्धि करनेवाले पुरुष से भूल होना कोई कठिन नहीं है।
यहाँ 'अनुमान' आगम आदि का भी उपलक्षण है । आगम आदि में भी पदार्थ का इन्द्रिय के साथ साक्षात् सम्बंध न होने के कारण हाथ के स्पर्श से अंधे मनुष्य के समान ही प्रवृत्ति होती है । तस्मात् प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । उस प्रत्यक्ष के द्वारा भूतों से भिन्न आत्मा का ग्रहण नहीं होता है। शरीर के रूप में परिणत पंच महाभूतों के समूह में जो चैतन्य पाया जाता है वह, शरीर के रूप में परिणत पंच महाभूतों से ही प्रकट होता है, जैसे मद्य के अंगों के मिलने पर उनमें मदशक्ति प्रकट होती है । तथा चैतन्यशक्ति, पंच महाभूतों से भिन्न नहीं है क्योंकि वह, पंच महाभूतों का ही कार्य है । जैसे पृथिवी से उत्पन्न घटादि कार्य पृथिवी से भिन्न नहीं है। इस प्रकार पञ्च महाभूतों से भिन्न आत्मा न होने के कारण पञ्च महाभूतों से ही चैतन्य-शक्ति प्रकट होती है, जैसे जल से बुद्बुद आदि प्रकट होते हैं। कोई लोकायतिक, आकाश को भी भूत मानते हैं, इसलिए इस गाथा में पाँच भूतों का कथन दोष के लिए नहीं है।
(शङ्का) यदि पाँच भूतों से भिन्न कोई आत्मा नाम का पदार्थ नहीं है तो "वह मर गया" यह व्यवहार कैसे हो सकता है ?
(समाधान) शरीर के रूप में परिणत पञ्च महाभूतों से चैतन्य शक्ति प्रकट होने के पश्चात् उन महाभूतों में से किसी के नाश होने पर वायु अथवा तेज अथवा दोनों के हट जाने पर देवदत्त नामक देही का नाश होता है, इसी कारण "वह मर गया" यह व्यवहार होता है, परन्तु कोई जीव नामक पदार्थ शरीर से अलग चला जाता है, यह नहीं है । यही भूतों से अभिन्न चैतन्य शक्ति माननेवाले लोकायतिकों का पूर्वपक्ष है ।
इस मत का समाधान देने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं- (पञ्चण्हं) पृथिवी आदि पाँच महाभूतों के परस्पर संयोग होने पर अर्थात् शरीर रूप में परिणत होने पर उनसे चैतन्यगुण तथा आदि शब्द से बोलना, चलना आदि गुण भी उत्पन्न नहीं हो सकते हैं, यह नियुक्तिकार प्रतिज्ञा करते हैं । इस गाथा में कहे हुए 'अन्य' आदि, हेतु रूप से कहे गये हैं । दृष्टान्त स्वयं जान लेना चाहिए, वह सुलभ होने के कारण नहीं कहा गया है ।।
इस विषय में चार्वाक से यह पूछना चाहिए कि- भूतों का संयोग होने पर जो यह चैतन्यशक्ति प्रकट होती है, वह, क्या इन भूतों के संयोग होने पर भी स्वतन्त्रता से ही प्रकट होती है अथवा परस्पर संयोग की अपेक्षा परतन्त्रता से प्रकट होती है ? । इससे क्या ? । समाधान यह है कि- पञ्चभूत, स्वतन्त्रता से चैतन्य शक्ति को नहीं प्रकट कर सकते हैं, अत एव नियुक्तिकार कहते हैं कि- (अण्णगुणाणं च) अर्थात् जिनका गुण चैतन्य से अन्य है, वे 'अन्यगुण' कहलाते हैं । (पृथिवी आदि, अन्य गुणवाले हैं) क्योंकि आधार देना और काठिन्य, पृथिवी का गुण है । जल का गुण द्रवत्व है । तेज का गुण पाचन है, वायु का गुण चलन है, अवगाहदान- स्थान देनाआकाश का गुण है । अथवा पूर्वोक्त गन्ध आदि क्रमशः एक-एक को छोड़कर पृथिवी आदि के गुण हैं । ये गुण चैतन्य से भिन्न हैं । इस प्रकार पृथिवी आदि पदार्थ चैतन्य से भिन्न गुणवाले हैं । इस गाथा में कहा हुआ 'च' शब्द, दूसरे विकल्प के वक्तव्य को सूचित करता है । चार्वाक को पृथिवी आदि से चैतन्य गुण की उत्पत्ति सिद्ध करनी है, परन्तु पृथिवी आदि महाभूतों का गुण चैतन्य से भिन्न है । इस प्रकार इन भूतों में जब कि प्रत्येक का चैतन्य गुण नहीं है तब फिर इनके समुदाय से भी चैतन्य गुण की सिद्धि नहीं हो सकती है । यहाँ अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए । स्वतन्त्र भूतसमुदाय धर्मी-पक्ष रूप से ग्रहण किया जाता है और उस भूत समुदाय का गुण चैतन्य नहीं है, यह साध्य धर्म है । पृथिवी आदि का गुण चैतन्य से भिन्न है, (यह हेत है)। 1. पाँच महाभूतों के संयोग से चैतन्य गुण उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि पाँच महाभूतों का चैतन्य गुण नहीं है । अन्य गुणवाले पदार्थों के संयोग
से अन्य गुणवाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती, जैसे बाळु के ढेर से तेल पैदा नहीं होता । बालु में स्निग्ध गुण न होने के कारण जैसे उससे तेल पैदा नहीं होता, उसी तरह पाँच महाभूतों में चैतन्य न होने के कारण उनके संयोग से चैतन्य गुण उत्पन्न नहीं हो सकता। यह नियुक्तिकार का आशय है।