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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा २
स्वसमयवक्तव्यताधिकारः है। वह क्या है जिसका बोध प्राप्त करना चाहिए ? इसलिए कहते है कि "बंधणं" अर्थात् जीव प्रदेश परस्पर अनुवेध रूप से जिसको स्थापित करता है, उसे बंधन कहते हैं अर्थात् जीव प्रदेश जिसमें स्वयं मिल जाता है और उसे भी अपने में मिला लेता है, वह 'बंधन' है । ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म, बंधन है अथवा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कारण रूप मिथ्यात्व और अविरति आदि अथवा परिग्रह और आरंभ आदि बंधन हैं। इन बंधनों का बोध प्राप्त करना चाहिए यह उपदेश है । परंतु बोधमात्र से इष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु क्रिया की भी आवश्यकता है । अतः शास्त्रकार क्रिया दिखलाते हैं । बंधन को जानकर विशिष्ट क्रिया से यानी संयम के अनुष्ठान से उसका विनाश करना चाहिए अथवा अपने से उसे अलग कर देना चाहिए। इस प्रकार कहने पर श्रीजम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग ने, बंधन के विशिष्ट स्वरूप को जानने के लिए श्रीसुधर्मास्वामी से पूछा कि "तीर्थंकर वीर प्रभु ने बन्धन का स्वरूप क्या बताया है और क्या जानकर जीव बन्धन को तोड़ता है अर्थात् स्वयं उससे पृथक् हो जाता है ?" यह इस श्लोक का अर्थ है ।
- बन्धनप्रश्नस्वरूपनिर्वचनायाह
- बन्धन का स्वरूप बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैंचित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ।।२।।
छाया - चित्तवन्तमचित्तं वा परिगृह्य कृशमपि । अव्यं वा अनुजानाति, एवं दुःखान्न मुच्यते ।।
व्याकरण - (चित्तमंत) कर्म । (अचित्त) कर्म । (वा) अव्यय । (परिगिज्झ) पूर्वकालिक क्रिया । (किसां) कर्म । (अवि) अव्यय। (अन्न) कर्म । (वा) अव्यय (अणुजाणाइ) क्रिया । (एवं) अव्यय । (दुक्खा) अपादान (ण) अव्यय । (मुच्चइ) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (चित्तमंत) चित्तवान् अर्थात् ज्ञानयुक्त द्विपद चतुष्पद आदि प्राणी (वा) अथवा (अचित्तं) चैतन्य रहित सोना चाँदी आदि। (किसामवि) तथा तुच्छ वस्तु भूस्सा आदि अथवा स्वल्प भी । (परिगिज्झ) परिग्रह रखकर । (वा) अथवा (अन्न) दूसरे को परिग्रह रखने की (अणुजाणाइ) अनुज्ञा देकर (एवं) इस प्रकार (दुक्खा) दुःख से (ण मुच्चइ) जीव मुक्त नहीं होता है ।
भावार्थ - जो पुरुष, द्विपद, चतुष्पद आदि चेतन प्राणी को, अथवा चैतन्य रहित सोना, चाँदी आदि पदार्थों को, अथवा तृण भूस्सा आदि तुच्छ पदार्थों को भी परिग्रह रूप से रखता है अथवा दूसरे को परिग्रह रखने की अनुज्ञा देता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता है।
टीका - इह बन्धनं कर्म तद्धेतवो वाऽभिधीयन्ते, तत्र न 'निदानमन्तरेण निदानिनो जन्मेति निदानमेव दर्शयति, तत्रापि सर्वारम्भाः कर्मोपादानरूपाः प्रायश आत्मात्मीयग्रहोत्थाना इति कृत्वाऽऽदौ परिग्रहमेव दर्शितवान्। चित्तमुपयोगो ज्ञानं तद्विद्यते यस्य तच्चित्तवत् - द्विपदचतुष्पदादि, ततोऽन्यदचित्तवत्-कनकरजतादि, तदुभयरूपमपि परिग्रहं परिगृह्य, कृशमपि स्तोकमपि तृणतुषादिकमपीत्यर्थः, यदिवा कसनं कसः परिग्रहबुद्धया जीवस्य गमनपरिणाम इति यावत्, तदेवं स्वतः परिग्रहं परिगृह्यान्यान् वा ग्राहयित्वा गृह्णतो वाऽन्याननुज्ञाय दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं वाऽसातोदयादिरूपं तस्मान्न मुच्यत इति, परिग्रहाग्रह एव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति । तथा चोक्तम् -
“ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, क्रतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्च्युल्लयः ।
यशःसुखपिपासितैरयमसावनात्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते" ||१|| तथा च -
"द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधियक्षिपरय सुहन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः। दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजः प्राज्ञस्याऽपि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च" ||२||
1. कर्मणो बन्धनत्वपक्षे ।