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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ४
स्वसमयवक्तव्यताधिकारः घात करते हुए पुरुषों को अनुज्ञा देता है वह, मारे जाने वाले प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है ।
टीका - यदिवा-प्रकारान्तरेण बन्धनमेवाह- 'सयं तीत्यादि,' स परिग्रहवानसंतुष्टो भूयस्तदर्जनपरः समर्जितोपद्रवकारिणि च द्वेषमुपगतस्ततः स्वयमात्मना 'त्रिभ्यो' मनोवाक्कायेभ्य आयुर्बलशरीरेभ्यो वा 'पातयेत्' च्यावयेत् प्राणान् प्राणिनः, अकारलोपाद्वा अतिपातयेत् प्राणानिति, प्राणाश्चामी -
“पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवासनिवासमथान्यदायुः ।
प्राणा दशैते भगवद्विरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ||१|| तथा स परिग्रहाग्रही न केवलं स्वतो व्यापादयति अपरैरपि घातयति, घ्नतश्चान्यान् समनुजानीते, तदेवं कृतकारितानुमतिभिः प्राण्युपमर्दनेन जन्मान्तरशतानुबन्ध्यात्मनो वैरं वर्धयति, ततश्च दुःखपरम्परारूपाद् बन्धनान्न मुच्यत इति । प्राणातिपातस्य चोपलक्षणार्थत्वान्मृषावादादयोऽपि बन्धहेतवो द्रष्टव्या इति ॥३॥
टीकार्थ - अथवा सूत्रकार 'सयं' इत्यादि गाथा के द्वारा दूसरे प्रकार से बंधन का ही स्वरूप बतलाते हैं। वह परिग्रही पुरुष स्वयं असंतुष्ट होकर फिर परिग्रह के उपार्जन में तत्पर होता है और उपार्जित परिग्रह में उपद्रव करने वाले पर वह द्वेष करता है । इस द्वेष के कारण वह स्वयं प्राणी को मन, वचन और काय अथवा आय बल और शरीर इन तीनों से नष्ट करता है । अथवा 'तिवायए' इस पद में अकार के लोप होने से 'अतिपातयेत्' यह जानना चाहिए अतः वह परिग्रही पुरुष, प्राणों का विनाश करता है, यह इसका अर्थ है । 'प्राण' ये हैं -
__पांच इन्द्रिय, तीन प्रकार का बल, उच्छवास, निवास और आयु, तीर्थंकर भगवान् ने ये दश प्राण कहे हैं, इन प्राणों का वियोग करना हिंसा है । परिग्रह में आग्रह रखने वाला वह पुरुष अपने आप ही प्राणियों का घात नहीं करता है,
ति नहीं करता है, कितु दूसरे द्वारा भी घात करवाता है और प्राणियों का घात करने वाले दूसरे को अनुमति भी देता है। इस प्रकार वह पुरुष प्राणियों को घात करने, कराने और अनुमति देने रूप तीनों करणों से प्राणियों का घात करके सैकडों जन्म के लिए उन प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है । इस कारण वह पुरुष, दुःख परम्परारूप बन्धन से मुक्त नहीं होता है। यहाँ प्राणातिपात उपलक्षण2 है इसलिए मुषावाद आदि भी बन्ध के कारण जानने चाहिए ॥३॥
- पुनर्बन्धनमेवाश्रित्याह -
- फिर बन्धन के विषय में ही सूत्रकार कहते हैं - जस्सिंकुले समुप्पने, जेहिं वा संवसे नरे। ममाइ लुप्पई बाले, अण्णे अण्णेहि मुच्छिए॥४॥
छाया - यस्मिन्कुले समुत्पमो येर्वा संवसेन्वारः । ममायं लुष्यते बालः, अव्येष्वव्येषु मूर्छितः ॥ व्याकरण - (जस्सि) अधिकरण का विशेषण । (कुले) अधिकरण । (समुप्पन्ने) कर्ता का विशेषण । (जेहिं) सहार्थक तृतीयांत । (वा)
(नरे) कर्ता । (मम) सम्बन्ध षष्ठ्यंत । (लुप्पई) क्रिया । (बाले) कर्ता । (अण्णे अण्णेहि) अधिकरण । (मुच्छिए) कर्ता का विशेषण ।
अन्वयार्थ - (नरे) मनुष्य (जस्सिं) जिस (कुले) कुल में (समुप्पन्ने) उत्पन्न है (जेहिं वा) अथवा जिसके साथ (संवसे) निवास करता है (ममाइ) उनमें ममत्व बुद्धि रखता हुआ वह (लुप्पई) पीड़ित होता है । (बाले) वह अज्ञानी (अण्णे अण्णेहि) दूसरी दूसरी वस्तुओं में (मुच्छिए) मूर्छित है।
___ भावार्थ - मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न हुआ है और जिसके साथ निवास करता है, उनमें ममता रखता हुआ वह पीड़ित होता है । वह मूर्ख अन्य-अन्य पदार्थों में आसक्त है ।
टीका - 'जस्सि' मित्यादि, यस्मिन् राष्ट्रकुलादौ कुले जातो यैर्वा सह पांसुक्रीडितैर्वयस्यैर्भार्यादिभिर्वा सह
1. अष्टकार कर्म चू. 1 2. जो दूसरे का भी बोध कराता है, उसे उपलक्षण कहते हैं ।