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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना यइजोगेण पभासियमणेगजोगंधराण साहूणं । तो ययजोगेण क्यं जीवस्स सभावियगुणेण ॥१९॥ नि०
तत्र तीर्थकृद्धिः क्षायिकज्ञानवर्तिभिर्वाग्योगेनार्थः प्रकर्षण भाषितः प्रभाषितो गणधराणां, ते च न प्राकृतपुरुषकल्पाः, किन्त्वनेकयोगधराः । तत्र योगः- क्षीराश्रवादिलब्धिकलापसम्बन्धस्तं धारयन्तीत्यनेकयोगधरास्तेषां, प्रभाषितमिति सूत्रकृताङ्गापेक्षया नपुंसकता, साधवश्चात्र गणधरा एव गृह्यन्ते, तदुद्देशेनैव भगवतामर्थप्रभाषणादिति, ततोऽर्थं निशम्य गणधरैरपि वाग्योगेनैव कृतं तच्च जीवस्य ‘स्वाभाविकेन गुणेनेति' स्वस्मिन् भावे भवः स्वाभाविकः प्राकृत इत्यर्थः, प्राकृतभाषयेत्युक्तं भवति न पुनः संस्कृतया ललिट्शप्प्रकृतिप्रत्ययादिविकारविकल्पनानिष्पन्नयेति ॥१९||नि०।।
तीर्थंकरों ने किस योग में वर्तमान होकर इस सूत्र का भाषण किया था तथा गणधरों ने किस भाव की भूमिका पर स्थित होकर इस ग्रन्थ की रचना की थी ? अब यह बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं
क्षायिकज्ञान में वर्तमान तीर्थंकरों ने वाणी द्वारा गणधरों को यह सूत्र अच्छी तरह कहा था । वे गणधर भी साधारण पुरुष के समान न थे, किंतु वे अनेक योगों को धारण करनेवाले थे । क्षीराव आदि लब्धि समूह के सम्बन्ध को 'योग' कहते हैं । उस योग को धारण करनेवाले गणधर थे । अत एव वे 'अनेकयोगधर' कहलाते हैं । उन गणधरों को यह सूत्र भगवान् ने कहा था । यहाँ 'सूत्रकृताङ्ग' शब्द की अपेक्षा से 'प्रभाषितम्' यह नपुंसकलिंग हुआ है । यहाँ साधु पद से गणधरों का ही ग्रहण है क्योंकि भगवान् ने उन गणधरों के उद्देश से ही इस अर्थ को कहा है। भगवान् से उस अर्थ को सुनकर गणधरों ने वाग्योग के द्वारा ही इस सूत्र की रचना की थी । यह रचना, जीव के स्वाभाविक गुण के अनुसार की गयी है । जो अपने भाव में उत्पन्न होता है, उसे 'स्वाभाविक' कहते हैं, अर्थात् जो जीव की प्रकृति से सिद्ध है, उसे स्वाभाविक कहते हैं। वह प्राकृत है । उस प्राकृत भाषा में इस सूत्र की रचना की गयी है परंतु लट्, लिट्, शप, प्रकृति, प्रत्यय, आदि विकारों की कल्पना से उत्पन्न संस्कृत भाषा में नहीं ॥१९|नि०॥ (क्योंकि संस्कृत भाषा जीवों की स्वाभाविक भाषा नहीं है।)
पुनरन्यथा सूत्रकृतनिरुक्तमाहअक्खरगुणमतिसंघायणाए, कम्मपरिसाडणाए य । तदुभयजोगेण कयं, सूतमिणं तेण सूत्तगडं ॥२०॥ नि०
अक्षराणि-अकारादीनि तेषां गुणः- अनन्तगमपर्यायवत्त्वमुच्चारणं वा, अन्यथाऽर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात्। मते:-मतिज्ञानस्य संघटना मतिसंघटना, अक्षरगुणेन मतिसंघटना, अक्षरगुणमतिसंघटना, भावश्रुतस्य द्रव्यश्रुतेन प्रकाशनमित्यर्थः, अक्षरगुणस्य वा मत्या- बुद्धया संघटना रचनेति यावत्, तयाऽक्षरगुणमतिसंघटनया, तथा कर्मणांज्ञानावरणादीनां परिशाटना-जीवप्रदेशेभ्यः पृथक्करणरूपा तया च हेतुभूतया, सूत्रकृताङ्गं कृतमिति सम्बन्धः, तथाहियथा यथा गणधराः सूत्रकरणायोद्योगं कुर्वन्ति तथा तथा कर्मपरिशाटना भवति, यथा यथा च कर्मपरिशाटना तथा तथा ग्रन्थरचनायोद्यमः सम्पद्यत इति । एतदेव गाथापश्चार्धेन दर्शयति- 'तदुभययोगेनेति' अक्षरगुणमतिसंघटनायोगेन कर्मपरिशाटनायोगेन च, यदिवा वाग्योगेन मनोयोगेन च कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति ॥२०॥नि०॥
फिर दूसरे प्रकार से सूत्रकृत शब्द की व्याख्या करते हैं ।
अकारादि वर्गों को अक्षर कहते हैं । उन अक्षरों का अनंतगमपर्यायपना अथवा उच्चारण करना गुण है क्योंकि अक्षरों के उच्चारण के बिना अर्थ का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है। मतिज्ञान को जोड़ना 'मतिसंघटना' कहलाता है । मतिज्ञान को अक्षरगुण के साथ जोड़ना 'अक्षरगुणमतिसंघटना' कहलाता है । भावश्रुत को द्रव्यश्रुत के द्वारा प्रकट करना 'अक्षरगुणमतिसंघटना' है। (अपने मन के भाव को वाणी द्वारा प्रकट करना 'अक्षरगुणमतिसंघटना है) अथवा बुद्धि के द्वारा अक्षरगुणों की रचना करना 'अक्षरगुणमतिसंघटना' है । ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को जीव प्रदेश से अलग करना 'कर्मपरिशाटन' कहलाता है । यह सूत्रकृताङ्गसूत्र, अक्षरगुणमतिसंघटना और कर्मपरिशाटना के द्वारा रचा गया है । गणधर भगवंत शास्त्र की रचना में ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं, त्यों-त्यों उनके कर्मों का परिशाटन होता है और ज्यों-ज्यों उनके कर्मों का परिशाटन होता है, त्यों-त्यों ग्रंथ रचने में उनका उद्योग बढ़ता
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