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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना
तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनं तस्य च निक्षेप आवश्यकादौ प्रबन्धेनाभिहित एव । नामनिष्पन्ने तु समय इति नाम, तन्निक्षेपार्थं निर्युक्तिकार आह
णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले कुतित्थसंगारे । कुलगणसंकरगंडी, बोद्धव्यो भावसमए य
॥२९॥ नि०
नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालकुतीर्थसंगारकुलगणसंकरगण्डीभावभेदाद् द्वादशधा समयनिक्षेपः । तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यसमयो द्रव्यस्य सम्यगयनं परिणतिविशेषः स्वभाव इत्यर्थः । तद्यथा - जीवद्रव्यस्योपयोगः पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तत्वम्, धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाहदानलक्षण: 1 अथवा यो यस्य द्रव्यस्यावसरो द्रव्यस्योपयोगकाल इति, तद्यथा“वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं, गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडथान्ते"
क्षेत्रसमयः क्षेत्रमाकाशं तस्य समय: स्वभाव: यथा
॥१॥
“एगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुण्णे सयंपि माएज्जा । लक्खसएणवि पुण्णे, कोडिसहस्संपि माज्जा" 2 ॥२॥
यदिवा देवकुरुप्रभृतीनां क्षेत्राणामीदृशोऽनुभावो यदुत तत्र प्राणिनः सुरूपाः नित्यसुखिनो निर्वैराश्च भवन्तीति । क्षेत्रस्य वा परिकर्मणावसरः क्षेत्रसमय इति । कालसमयस्तु सुषमादेरनुभावविशेषः, उत्पलपत्रशतभेदाभिव्यङ्ग्यो वा कालविशेषः कालसमय इति । अत्र च द्रव्यक्षेत्रकालप्राधान्यविवक्षया द्रव्यक्षेत्रकालसमयता द्रष्टव्येति । कुतीर्थसमयः पाषण्डिकानामात्मीयात्मीय आगमविशेषस्तदुक्तं वाऽनुष्ठानमिति । संगारः संकेतस्तद्रूपः समयः संगारसमयः - यथा सिद्धार्थसारथिदेवेन पूर्वकृतसंगारानुसारेण गृहीतहरिशवो बलदेवः प्रतिबोधित इति । कुलसमयः कुलाचारो यथा शकानां पितृशुद्धिः, आभीरकाणां मन्थनिकाशुद्धिः । गणसमयो यथा मल्लानामयमाचारो - यथा यो ह्यनाथो मल्लो म्रियते स तैः संस्क्रियते पतितश्चोद्धियत इति । संकरसमयस्तु संकरो - भिन्नजातीयानां मीलकस्तत्र च समय:- एकवाक्यता, यथा वाममार्गादावनाचारप्रवृत्तावपि गुप्तिकरणमिति । गण्डीसमयो - यथा शाक्यानां भोजनावसरे गण्डीताडनमिति । भावसमयस्तु नोआगमत इदमेवाध्ययनम् अनेनैवात्राधिकारः, शेषाणां तु शिष्यमतिविकासार्थमुपन्यास इति ॥ २९ ॥ नि० ||
नामनिष्पन्न निक्षेप में इस अध्ययन का 'समय' नाम है। उस समय का निक्षेप बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, "काल, 'कुतीर्थ, "संगार, 'कुल, गण, संकर, गंडी और १२ भाव भेद से समयनिक्षेप बारह प्रकार का होता है ।
इनमें नाम और स्थापना सुगम हैं। द्रव्य के सम्यग् अयन अर्थात् परिणामविशेष यानी स्वभाव को द्रव्यसमय कहते हैं । जैसे जीवद्रव्य का स्वभाव उपयोग है और पुद्गलद्रव्य का स्वभाव मूर्त्तत्व है । गति, स्थिति और अवकाश देना क्रमशः धर्म-अधर्म और आकाश के स्वभाव हैं । अथवा जिस द्रव्य का जो काल, उपयोग के योग्य है, वह उसका समय है ।
जैसे वर्षा ऋतु में [ श्रावण भाद्रपद ] नमक, शरद् ऋतु में जल, हेमंत में गाय का दूध, शिशिर में आँवले का रस, वसन्त में घृत और ग्रीष्म में [ जेठ आषाढ] गुड़ अमृत हैं ।
अब क्षेत्रसमय बताया जाता है । क्षेत्र, आकाश का नाम है, आकाश के स्वभाव को क्षेत्रसमय कहते हैं। आकाश, एक परमाणु से भी पूर्ण होता है, दो से भी पूर्ण होता है तथा सौ भी उसमें समा जाते हैं । वह सौ लाख से भी पूर्ण होता है तथा हजारों कोटि भी उसमें समा जाते हैं ।
अथवा देवकुरु आदि क्षेत्रों का यह स्वभाव है कि उनमें निवास करनेवाले प्राणी बड़े सुन्दर नित्यसुखी तथा निर्वैर होते हैं । अथवा धान्य आदि बोने के लिए खेत को शुद्ध करने का जो अवसर होता है उसे 'क्षेत्रसमय' कहते हैं। सुषम आदि आरा के प्रभाव विशेष को कालसमय कहते हैं । अथवा कमल के सौ पत्तों के बींधने
1. कालओ भमरो सुगंधं चंदणादि तित्तो निंबो कक्खडो पाहाणो चू. 1. 2. एकेनापि स पूर्णो द्वाभ्यामपि पूर्णः शतमपि मायात् । लक्षशतेनापि पूर्णः कोटीसहस्रमपि मायात् ॥
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