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आचारांग निशीथ सूत्रका अभ्यास न करे, तो पछी देना नहीं कल्पै. कारण-साधुवर्गका खास आधार आचारांग और निशीथसूत्र परही है.
(१३) जिस गच्छमें नवयुवक तरुण साधुवोंका समूह है, उस गच्छके आचार्योपाध्याय कालधर्म प्राप्त हो जावे तो उस मुनियोंको आचार्योपाध्याय विना रहेना नहीं कल्पै. उस मुनियोंको चाहिये कि शीघ्रतासे प्रथम आचार्य, फिर उपाध्यायपद पर स्थापन कर, उन्ही की आज्ञामे प्रवृत्ति करना चाहिये. कारणआचार्योपाध्याय विना साधुवोंका निर्वाह होना असंभव है.
(१४ ) जिस गच्छमें नव युवक तरुण साध्वीयां है. उन्होंके आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी कालधर्म प्राप्त हो गये हो, तो उन्होंको पहले आचार्यपद, पीछे उपाध्यायपद और पीछे प्रवतिनीपद स्थापन करना चाहिये. भावना पूर्ववत्
(१५) साधु गच्छमें ( साधुवेषमें ) रह कर मैथुनको सेवन कीया हो, उस साधुको जायजीवतक आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणी; गणधर, गणविच्छेदक, इस पद्वीयोमैसे किसी प्रकारकी पद्वी देना नहीं कल्पै, और उस साधुको लेना भी नहीं कल्पै जिसको शासनका, गच्छका और वेषकी मर्यादाका भी भय नहीं है, तो वह पद्वीधर हो के शासनका और गच्छका क्या निर्वाह कर सके ?
(१६) कोई साधु प्रबल मोहनीयकर्मसे पीडित होनेपर गच्छ संप्रदायको छोडके मैथुन सेवन कीया हो, फीर मोहनीयकर्म उपशांत होनेसे उसी गच्छमें फिरसे दीक्षा लेवे, अर्थात् दीक्षा देनेवाला उसे दीक्षायोग्य जाने तो दे; उस साधुको तीन वर्षतक पूर्वोक्त सात पतीसे किसी प्रकारकी पद्वी देना नहीं कल्पै,