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आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणि, गणविच्छेदक, पी . देना कल्पै. और उस मुनिको उक्त पद्वी लेना भी कल्पै.
(१०) इससे विपरीत हो तो न संघको पही देना कल्पे, न उस मुनिको पद्वी लेना कल्पै. कारण-पद्वीधरोंके लीये प्रथम इतनी योग्यता प्राप्त करनी चाहिये. जो उपर लिखी हुइ है.
(११) एक दिनके दिक्षितको भी आचार्यपद्वी देना कल्पै.
भावार्थ-किसी गच्छके आचार्य कालधर्म प्राप्त हुवे, उस गच्छमें साधु संप्रदाय विशाल है, किन्तु पीछे असा कोइ योग्य साधु नहीं है कि जिसको आचार्यपद पर स्थापन कर अपना निर्वाह कर सके. उस समय अच्छा, उच्च, कुलीन जिस कुलकी अन्दर बडी उदारता है, विश्वासकारी उच्च कार्य कीया हुवा है, संसारमें अपने विशाल कुटुम्बका हितपूर्वक निर्वाह कीया हो, लोकमें पूर्ण प्रतीत हो-इत्यादि उत्तम गुणोंवाले कुलका योग्य पुरुष दीक्षा ली हो, जैसा एक दिनकी दीक्षावालेको आचार्यपद देना कल्पे.
(१२) वर्ष पर्याय धारक मुनिको आचार्य उपाध्यायकी पद्वी देना कल्पै.
भावार्थ-कोइ गच्छमें आचार्योपाध्याय कालधर्म प्राप्त हो गये हो और चिरदिक्षित आचार्योपाध्यायका योग न हो, उस हालतमें पूर्वोक्त जातिवान् , कुलवान्, गच्छ निर्वाह करने योग्य अचिरकाल दीक्षित है, उसको भी आचार्योपाध्याय पट्टी देनी कल्पै. परन्तु वह मुनि आचारांग निशीथका जानकार न हो तो उसे कह देना चाहिये कि-आप पेस्तर आचारांग निशीथका अभ्यास करों. इसपर वह मुनि अभ्यास कर आचारांग निशीथ सूत्र पढ़ ले, तो उसे आचार्योपाध्याय पनी देना कल्पै. अगर