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भावार्थ-प्रायश्चित लेके तप कर रहा है. इसी वास्ते वह . साधु शुद्ध है. वास्ते उसने लाया हुवा अशनादि स्थविर भोगव सके. परन्तु अबी तक तपको पूर्ण नहीं कीया है. वास्ते उस साधुके पात्रादिमें भोजन न करें. उससे उस साधुको क्षोभ रहेता है. तपको पूर्णतासे पार पहुंचा सकते हैं. इति. श्री व्यवहार मुत्र-दूसरा उद्देशाका संक्षिप्त सार,
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(३) तीसरा उद्देशा. . (१) साधु इच्छा करे कि मैं गणको धारण करूं. अर्थात् शिष्यादि परिवारको ले आगेवान हो के विचरं. परन्तु आचारांग
और निशीथसूत्रके जानकार नहीं है. उन साधुको नहीं कल्पै गणको धारण करना.
(२) अगर आचारांग और निशीथसूत्रका ज्ञाता हो, उस साधुको गण धारण करना कल्प.
भावार्थ-आगेवान हो विचरनेवाले साधुवोंको आचारांगसूत्रका ज्ञाता अवश्य होना चाहिये, कारण-साधुवोंका आचार, गोचार, विनय, वैयावञ्च, भाषा आदि मुनि मार्गका आचारांगसूत्रमें प्रतिपादन कीया हुवा है. अगर उस आचारसे स्खलना हो जावे, अर्थात् दोष लग भी जावे तो उसका प्रायश्चित निशीथ सूत्रमें है. वास्ते उक्त दोनों सूत्रोंका जानकार हो, उस मुनिको ही आगेवान होके विहार करना कल्पै.
(३) आगेवान हो विहार करनेकी इच्छावाले मुनियाँको पेस्तर स्थविर ( आचार्य ) महाराजसे पूछना इसपर आचार्य महाराज योग्य जानके आज्ञा दे तो कल्पै.