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आनेकी इच्छा करे, अगर उस समय अन्य साधु शंका करे कि.. इसने दोष सेवन कीया होगा या नहीं ? उन्होंकी प्रतीतिके लीये आचार्य महाराज उसकी जांच करे. प्रथम उस साधुको पूछे. अगर वह साधु कहे कि मैंने अमुक दोष सेवन कीया है. तो उसको यथायोग्य प्रायश्चित देना. अगर साधु कहे कि मैंने कुच्छ भी दोष सेवन नहीं कीया है, तो उसकी सत्यतापर ही आधार रखे. कारण प्रायश्चिम आदि व्यवहार से ही दीया जाता है.
भावार्थ - अगर आचार्यादिको अधिक शंका हो तो जहाँ पर वह साधु गया हो, वहांपर तलास करा लि जावे. भगवती सूत्र ८-६ मनकी आलोचना मनसे भी शुद्ध हो सकती है.
(२५) एक पक्षवाले साधुको स्वल्पकालके लीये आचार्योपाध्यायकी पद्वी देना कल्पै. परन्तु गच्छवासी निग्रंथोंको उसकी प्रतीति होनी चाहिये.
भावार्थ- जिन्होंको रागद्वेषका पक्ष नहीं है. अथवा एक गच्छ गुरुकुलवासको चिरकाल सेवन कीया हो. प्रायः गुरुकुलवास सेवन करनेवालेमें अनेक गुण होते है. नये पुराणे आचार व्यवहार, साधु आदिके जानकार होते है, गच्छमर्यादा चलाने में कुशल होते है, उन्होंको आचार्यकी मौजूदगी में पट्टी दी जाती है. अगर आचार्य कभी कालधर्म पाया हो, तो भी उन्होंके पीछे पीका झघडा न हो, साधु सनाथ रहै. स्वल्पकालकी पी देनेका कारण यह है कि- - अगर दुसरा कोई योग्य हो तो वह उन्हों को भी दे सकते है. अगर दुसरा पीके योग्य न हो तो, चिरकालके लीये ही उसी पद्वीको रख सकते है.
( २६ ) जो कोइ मुनि परिहार तप कर रहे है, और कितनेक अपरिहारिक साधु पकत्र निवास करते है. उन्होंको एक