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चना विना आराधक नहीं होता है. जैसे गच्छको और संघको प्रतीतिका कारन हो, औसा करना चाहिये.
(२३) दो साधु सदृश समाचारीवाले साथ विचरते है. किसी कारणसे एक साधु दुसरे साधुपर अभ्याख्यान ( कलंक) देनेके इरादेसे आचार्यादिके पास जाके अर्ज करे कि-हे भगवन, मेने अमुक साधुके साथ अमुक अकृत्य काम कीया है. इसपर जिस साधुका नाम लीया, उस साधुको आचार्य बुलवाके हितबुद्धि और मधुरतासे पुछे-अगर वह साधु स्वीकार करे, तो उसको प्रायश्चित्त देवे, अगर वह साधु कहे कि-मेने यह अकृत्य कार्य नहीं कीया है. तो कलंकदाता मुनिको उसका प्रमाण पुरःसर पुछे, अगर वह साबुती पुरी न दे सके, तो जितना प्रायश्चित्त उस मुनिको आता था, उतना ही प्रायश्चित्त उस कलंकदाता मुनिको देना चाहिये. अगर आचार्य उस बातका पूर्ण निर्णय न कर, राग द्वेषके वश हो अप्रतिसेवीको प्रतिसेवी बनाके प्रायश्चित्त देवे तो उतना ही प्रायश्चित्तका भागी प्रायश्चित्त देनेवाला आचार्य होता है.
भावार्थ-संयम है सो आत्माकी साक्षीसे पलता है. और सत्य प्रतिज्ञा जैसा व्यवहार है. अगर विगर साबुती किसीपर आक्षेप कायम कर दिया जायगा, तो फिर हरेक मुनि हरेकपर आक्षेप करते रहेगा, तो गच्छ और शासनकी मर्यादा रहना असंभव होगा. वास्ते बात करनेवाले मुनिको प्रथम पूर्ण साबुती या जांच कर लेना चाहिये.
(२४) किसी मुनिको मोहकर्मका प्रबल उदय होनेसे कामपीडित हो, गच्छको छोडके संसारमें जाना प्रारंभ कीया, जाते हुवेका परिणाम हुवा कि-अहो! मैंने अकृत्य कीया, पाया हुवा चारित्र चिंतामणिको छोड काचका कटका ग्रहन करनेकी अभिलाषा करता हुं. ऐसे विचारसे वह साधु फिरसे उसी गच्छमें