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मुनिको व्यवहार शुद्धिके निमित्त नाम मात्र प्रायश्चित्त देवे. कारण वह ग्लान साधु उस समय दोषित है, परन्तु वैयावच करनेवाला उत्कृष्ट परिणामसे तीर्थंकर गोत्र बांध सकता है.
(१८) नौवा प्रायश्चित्त सेवन करनेवालेको अगृहस्थपणे दीक्षा देना नहीं कल्पै गणविच्छेदकको.
( १९ ) नौवा अनवस्थित नामका प्रायश्चित कोइ साधु सेवन कीया हो, उसको फिरसे गृहस्थलिंग धारण करवाके ही दीक्षा देना गणविच्छेदकको कल्पै.
( २० ) दशवा प्रायश्चित करनेवालेको अग्रहस्थपणे दीक्षा देना नहीं कल्पै गणविच्छेदकको.
(२१) दशवा पारंचित नामका प्रायश्चित किसी साधुने सेवन कीया हो, उसको फिरसे गृहस्थलिंग धारण करवाके ही दीक्षा देना गणविच्छेदकको कल्पै.
(२२) नौवां अनवस्थित तथा दशवां पारंचित नामका प्रायचिच किसी साधुने सेवन कीया हो, उसे गृहस्थलिंग करवाके तथा गृहस्थ (साधु) लिंगसे ही दीक्षा देना कल्पै.
भावार्थ- नौवां दशवां प्रायश्चित (बृहत्कल्प में देखो ) यह एक लौकिक प्रसिद्ध प्रायश्चित है. इस वास्ते जनसमूहको शासनकी प्रतीतिके लीये तथा दुसरे साधुवोंका क्षोभके लीये उसे प्रसिद्धि में ही गृहस्थलिंग करवाके फिरसे नवी दीक्षा देना कल्पै. अगर कोइ आचार्यादि महान् अतिशय धारक हो, जिसकी विशाल समुदाय हो, अगर कोई भवितव्यताके कारण असा दोष सेवन कीया हो, वह बात गुप्तपणे हो तो उसको प्रायश्चित अन्दर ही देना चाहिये. तात्पर्य - गुप्त प्रायश्चित्त हो, तो आलोचना भी गुप्त देना. और प्रसिद्ध प्रायश्चित्त हो तो आलोचना भी प्रसिद्ध देना परन्तु आलो