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१४५ करना गणविच्छेकको नहीं कल्पै. किन्तु उस मुनिकी अम्लानपणे वैयाषच्च करना कल्पै. जहांतक वह मुनिका शरीर रोग रहित न हो, वहांतक. यावत् पूर्ववत्. .
(१०) 'दित्तचित्त' कन्दर्पादि कारणोंसे दिप्तचित्त होता है. (११) 'जख्खाइठं ' यक्ष भूतादिके कारणसे ,, , (१२) 'उमायपतं' उन्मादको प्राप्त हुवा. (१३) 'उपसगं' उपसर्गको प्राप्त हुवा. (१४ ) ' साधिकरण' किसीके साथ क्रोधादि होनेसे.
(१५) 'सप्रायश्चित्त ' किसी कारणसे अधिक प्रायश्चित्त आने पर.
(१६) भात पाणीका परित्याग ( संथारा) करने पर.
(१७) 'अर्थजात' किसी प्रकारकी तीव्र अभिलाष हो, तथा अर्थ याने द्रव्यादि देखनेसे अभिलाषा वशात्.
उपर लिखे कारणोंसे साधु अपना स्वरुप भूल बेभान हो नाता है, ग्लान हो जाता है, उस समय गणविच्छेदकको, उस मुनिको गण बाहार कर देना या तिरस्कार करना नहीं कल्पै. किन्तु उस मुनिकी वैयावच्च करना कराना कल्पै. कारणऐसी हालतमें उस मुनिको गच्छ बाहार निकाल दीया जाय तो शासनकी लघुता होती है. मुनियों में निर्दयता और अन्य लोगोंका शासन-गच्छमें दीक्षा लेनेका अभाव ही होता है. तथा संयमी जीवोंको सहायता देना महान् लाभका कारण है. वास्ते गणविच्छेदकको चाहिये कि उस मुनिका शरीर जहांतक रोग मुक्त न हो वहांतक वैयावञ्च करे. फिर उस मुनिका शरीर रोगमुक्त हो जाय तब वैयावश्च करनेवाले १०