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उस प्रायश्चिचके तपकी अन्दर स्थापन करना चाहिये, और दुसरा मुनि उसको सहायता अर्थात् वैयावच्च करे.
(२) अगर दोनों मुनियोंको साथमें ही प्रायश्चित लगा हो, तो उस मुनियोंसे एक मुनि पहले तप करे. दुसग मुनि उसको सहायता करे, जब उस मुनिका तप पूर्ण हो जाय, तब दुसरा मुनि तपश्चर्या करे और पहला मुनि उसको सहायता करे.
(३) एवं बहुतसे मुनि एकत्र हो विहार करे जिसमें एक मुनिको दोष लगा हो, तो उसे आलोचना दे तप कराना. दुसरा मुनि उसको सहायता करें.
(४) एवं बहुतसे मुनियोंको एक साथमें दोष लगा हो. जैसे शय्यातरका आहार भूलमें आ गया. सर्व साधुवोंने भोगव भी लीया. बाद में खबर हुइ कि इस आहारमें शय्यातरका आहार सामेल था, तो सर्व साधुवोंको प्रायश्चित्त होता है. उसमें एक साधुको वैयावच्चके लीये रखे और शेष सर्व साधु उस प्रायश्चिएका तप करे. उन्होंका तप पूर्ण होनेपर एक साधु रहा था. वह तप करे और दुसरे साधु उसकी सहायता करे. अगर अधिक साधुवोंकी आवश्यक्ता हो तो अधिकको भी रख सकते है.
भावार्थ - प्रायश्चित सहित आयुष्य बंध करके काल करनेसे जीव विराधक होता है. वास्ते लगे हुवे पापकी आलोचना कर उसका तप ही शीघ्र कर लेना चाहिये. जिससे जीव आराधक हो पारंगत हो जाता है.
(५) प्रतिहार कल्प साधु-जो पहला प्रायश्चित्त सेवन कीया था, वह साधु तपश्चर्या करता हुवा अकृत्य स्थानको और सेवन कीया, उसकी आलोचना करनेपर आचार्य महाराज उसकी