________________
१४१
(३४) अगर अपने आचार्योपाध्याय उस समय हाजर न हो तो अपने संभोगी ( एक मंडलमें भोजन करनेवाले ) साधु जो बहुश्रुत-बहुत आगमोंके जानकार, उन्होंके समीप आलोचना कर यावत् प्रायश्चित्तको स्वीकार करे.
( ३५ ) अगर अपने संभोगी साधु न मिले तो अन्य संभोगवाले गीतार्थ-बहुत आगमोंके जानकार मुनि हो, उन्होंके पास आलोचना कर यावत् प्रायश्चित्त को स्वीकार करे.
(३६) अगर अन्य संभोगवाले उक्त मुनि न मिले, तो रुप साधु अर्थात् आचारादि क्रियामें शिथिल है, केवल रजोहरण, मुखवत्रिका साधुका रुप उन्होंके पास है, परन्तु बहुश्रुत-बहुत आगमोंका जानकार है, उन्होंके पास आलोचना यावत् प्रायश्चितको स्वीकार करे.
(३७) अगर रुपसाधु बहुश्रुत न मिले तो पीछे कृत श्रावक 'जो पहला दीक्षा लेके बहुश्रुत-बहुत आगमोंका जानकार हो फिर मोहनीय कर्म के उदयसे श्रावक हो गया हो.' उसके पास आलोचना कर यावत् प्रायश्चित स्वीकार करे.
(३८) अगर उक्त श्रावक भी न मिले तो- समभावियाई चंइयाई' अर्थात् सुविहित आचार्योंकी करि हुइ प्रतिष्ठा ऐसी जिनेन्द्र देवोंकी प्रतिमाके आगे शुद्ध भावसे आलोचनाकर यावत् प्रायश्चित स्वीकार करे.
* ' समभावियाई चेइयाई ' का अर्थ-इंडीये लोग श्रावक तथा सम्यग्दृष्टि करते है. यह असत्य है. कयोंकि आलोचनामें गीतार्थोकी आवश्यक्ता है. जिसमेंभी छेद सूत्रों का तो अवश्य जानकार होना चाहिये और जानकार श्रावकका पाठ तो पहले आ गया, है. इस वास्ते पूर्व महर्षियोंने कीया वह ही अर्थ प्रमाण है.