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(३१) जो कोइ साधु गच्छ छोडके पाखंडी लिंगको स्वी. कार करे अर्थात् अन्य यतियों के लिंगमें रहे और वापिस स्वगच्छमें आना चाहे, तो उसे कोइ आलोचना प्रायश्चित्त नहीं. फक्त व्यवहारसे उसकी आलोचना सुन ले, फिर उस मुनिको गच्छ में ले लेना चाहिये. भावार्थ- अगर कोइ राजादिका जैन मुनियों पर कोप हो जानेसे अन्य साधुवोंका योग न होने पर अपना संयमका निर्वाह करने के लीये अन्य यतियोंके लिंगमे रह कर, अपनी साधुक्रिया बराबर साधन करता केवल शासन रक्षणके लीये ही ऐसा कार्य करे, तो उसे प्रायश्चित्त नहीं होता है. इस विषय में स्थानांग सूत्र चतुर्थ स्थानको चौभंगी, तथा भगवती सूत्र निग्रंथा धिकारे विशेष खुलासा है.
(३२) जो कोइ साधु स्वगच्छको छोडके व्रत भंग कर गृहस्थधर्मको सेवन कर लीया हो बाद में उसको परिणाम हो कि मैंने चारित्र चितामणिको हाथसे गमा दीया है. अर्थात् संसारसे अरुचि-संवेगकी तर्फ लक्ष्य कर फिरसे उसी गच्छमें आना चाहे तो आचार्य महाराज उसकी योग्यता देखे, भविष्यके लीये ख्याल कर, उसे छेदके तप प्रायश्चित्त कुछ भी नहीं दे, किन्तु पुनः उसी रोजसे दीक्षा देवे.
(३३) जो कोइ साधु अकृत्य ऐसा प्रायश्चित्त स्थानकों से. वन करे फिरसे शुद्ध भावना आनेसे आलोचना करने की इच्छा करे, तो उस मुनिको अपने आचार्योपाध्याय जो बहुश्रुत, बहु आगमका जाणकार, पांच व्यवहारके ज्ञाता हो उन्होंके समीप आलोचना करे, प्रतिक्रमण करे, पापसे विशुद्ध हो, प्रायश्चित्तसे निवृत्त हो, हाथ जोडके कहे कि-अब में ऐसा पापकर्मको सेवन न करुंगा. हे भगवन् ! इस प्रायश्चित्तकी यथायोग्य आलोचना दो. अर्थात् गुरु देवे उस प्रायश्चित्त को स्वीकार करे.