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- (३९) अगर ऐसा मंदिरमूर्तिका भी जहांपरं योग न हो, तो फिर ग्राम तथा नगर यावत् सन्निवेश के बाहार जहांपर कोइ सुननेवाला न हो, ऐसे स्थल में जाके पूर्व तथा उत्तर दिशाके सन्मुख मुंह कर दोय हाथ जोड शिरपे चडाके असा शब्द उच्चारण करना चाहिये-हे भगवन् ! मैंने यह अकृत्य कार्य कीया है. हे भगवन् ! में आपकी साक्षीसे अर्थात् आपके समीप आलोचना करता हुं. प्रतिक्रमण करता हु. मेरी आत्माकी निंदा करता हुं. घृणा करता हुं. पापोंसे निवृचि करता हुं. आत्मा विशुद्ध करता हुं. आइंदासे ऐसा अकृत्य कार्य नहीं करूंगा ऐसा कहे. यथायोग स्वयं प्रायश्चित स्वीकार करना चाहिये.
भावार्थ--जो किंचित् ही पाप लगा हो, उसकी आलोचनाके लीये क्षणमात्र भी प्रमाद न करना चाहिये. न जाने आयुष्यका किस समय बन्ध पडता है. काल किस समय आता है. इस वास्ते आलोचना शीघ्रतापूर्वक करना चाहिये. परन्तु आलोचनाके सुननेवाला गीतार्थ, गंभीर, धैर्यवान होना चाहिये. वास्ते शास्त्रकारोंने आलोचना करनेकी विधि बतलाइ है. इसी माफिक करना चाहिये. इति. श्री व्यवहार सूत्र-प्रथम उद्देशाका संक्षिप्त सार.
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(२) दूसरा उद्देशा. ( १ ) दो स्वधर्मी साधु एकत्र हो विहार कर रहे है. उसमें पक साधुने अकृत्य कार्य अर्थात् किसी प्रकारका दोषको सेवन कीया है, तो उस दोषका यथायोग उस मुनिको प्रायश्चित देके