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बिलखता और संकट में पड़ा देख क्या तुझे जरा भी करुणा नहीं आती ? फिर तू कैसा संकटमोचक है? | प्रभु ! यह कैसी लीला है तेरी? यह कैसा सृष्टि कर्तृत्व है तेरा ? कुछ समझ में नहीं आता । प्रभु ! ऐसी | हालत में कुछ अन्धभक्त भले ही तुझे पूजते रहें, पर पढ़े-लिखे, विचारवान और वैज्ञानिक दृष्टिवाले व्यक्तियों
का तो धीरे-धीरे तेरी सत्ता पर से ही विश्वास उठ जायेगा। | अब तो अधिकांश व्यक्ति ऑटोमेटिक स्व-संचालित विश्वव्यवस्था में ही अपना विश्वास व्यक्त करने | लगे हैं; क्योंकि इस पक्ष के पोषक तर्क हैं, युक्तियाँ हैं, आगम हैं और वैज्ञानिक समर्थन भी है। अत: प्रबुद्ध पाठक कुलधर्म के चक्कर में पड़े न रहकर परीक्षा प्रधानी बनें, इस विषय पर गम्भीरता से विचार करें और आत्महित के हेतुभूत वस्तुस्वातन्त्र्य के स्वरूप का यथार्थ निर्णय करें।
ईश्वर कर्तृत्व के संबंध में कुछ प्रश्न ऐसे भी हैं, जिनके कोई युक्तिसंगत उत्तर नहीं है, कोई संतोषजनक समाधान नहीं है। जैसे कि -
(१) सृष्टि से पहले जब सृष्टि थी ही नहीं तो ईश्वर ने यह सृष्टि कहाँ बैठकर बनाई होगी ? (२) जब ईश्वर स्वयं अमूर्त है तो वह यह मूर्त सृष्टि कैसे बना सकता है ?
(३) सृष्टि के अभाव में ईश्वर ये विशाल नदियाँ, ये ऊँचे-ऊँचे पहाड़, अथाह समुद्र और नगरादि बनाने के लिए सामग्री (कच्चा मटेरियल) कहाँ से लाया होगा ?
(४) सृष्टि के पूर्व जब सृष्टि निर्माण के साधन ही नहीं थे तो सृष्टि का निर्माण कार्य कहाँ से कैसे किया? (५) यदि कारण सामग्री अपने आप बन जाती है तो कार्य अपने आप क्यों नहीं हो सकता ?
(६) ईश्वर भी तो एक कार्य है, उस ईश्वर का कर्ता भी तो कोई अन्य ईश्वर होना चाहिए। फिर उसका | भी कोई अन्य ईश्वर होगा - इसतरह तो अनवस्था दोष आयेगा, कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। यदि वह (ईश्वर) स्वत:सिद्ध है तो सृष्टि स्वत:सिद्ध क्यों नहीं हो सकती?
इसलिए मानना चाहिए कि यह लोक अकृत्रिम ही है। अनादिनिधन है एवं स्वसंचालित है। न इसे कार बना सकता है न इसका संहार कर सकता है। अत: सृष्टि के निर्माता का विचार कल्पनामात्र ही है।
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