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सुलोचना ने जयकुमार से कहा कि - "पूर्वभव में हम दोनों (देव-देवी) भी ये सब कथायें केवली गुणपाल से सुनकर एवं गुणपाल केवली को नमस्कार कर स्वर्ग चले गये। वहाँ से चयकर यहाँ उत्पन्न हुए हैं।"
पहले विद्याधर के भव में लक्ष्मी को बढ़ानेवाली जो प्रज्ञप्ति आदि विद्यायें थीं, वे भी बड़े प्रेम से जयकुमार और सुलोचना को प्राप्त हो गईं थीं। उन विद्याओं के बल से महाराज जयकुमार ने अपनी प्रिया | सुलोचना के साथ देवों के भ्रमण करने योग्य देशों में विहार करने की इच्छा की। एतदर्थ अपने छोटे भाई विजयकुमार को राज-काज में नियुक्त कर दिया।
जयकुमार अपनी प्रियपत्नी सुलोचना के साथ समुद्र, कुलाचल एवं अनेक प्रकार के वन-उपवनों में विहार करता हुआ कैलाश पर्वत पर पहुँचा । वहाँ कारणवश सुलोचना से दूर चला गया। उसीसमय इन्द्र अपनी सभा में जयकुमार और सुलोचना के शील की महिमा का वर्णन कर रहा था, उसे सुनकर रविप्रभ नामक देव ने उनकी परीक्षा करने को कांचना नाम की देवी भेजी। वह बुद्धिमती देवी जयकुमार के पास आकर कहने लगी कि “इसी भरतक्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में एक मनोहर नाम का देश है। मैं उस देश के राजा की राजकुमारी हूँ। मैंने जबसे आपको देखा, मैं आप पर मोहित हो गई हूँ, आज प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य हुआ है, अब मैं अपने काम के वेग को रोक नहीं पा रही हूँ।" इसप्रकार कहकर वह कामुक क्रीड़ायें करने लगी।
उसकी दुष्ट चेष्टायें देखकर जयकुमार ने कहा - "तू इस तरह पाप पूर्ण विचार को त्याग दे। तू मेरी बहिन के समान है। मैंने मुनिराज से व्रत लिया है कि मुझे परस्त्री का संसर्ग मात्र विषतुल्य है।" ___उस कांचना नाम की देवी ने जयकुमार को डरा कर वश में करने की अनेक कुचेष्टाएँ कीं; किन्तु जब उन्हें अपने शील से डिगाने में सफल नहीं हुई और उनकी दृढ़ता से प्रभावित होकर वह वापस चली गई तथा अपने स्वामी रविप्रभ से जयकुमार के शील की महिमा कही। उस वृतान्त को सुनकर रविव्रत बहुत प्रभावित हुआ और उसने स्वयं आकर जयकुमार से क्षमा मांगी और उनकी रत्नों से पूजा की।
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