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खड़ा होने से आत्मा के अभेदस्वरूप खण्डित होता है, जबकि दृष्टि का विषय अखण्ड है। असंख्य प्रदेशों के अखण्ड या अभेद का नाम ही वस्तु का स्वक्षेत्र है। इसी तरह अनन्त गुणों का अभेद आत्मा का स्वभाव है तथा अनादिकाल से लेकर अनन्तकाल तक पर्यायों का अनुस्यूति से रचित - धाराप्रवाहीपन आत्मा का स्वकाल है।
इसप्रकार सामान्यात्मक, एकात्मक, त्रिकाली और असंख्यात प्रदेशी आत्मद्रव्य या भगवान आत्मा, कारणपरमात्मा ही दृष्टि का विषय है, सत् श्रद्धा का श्रद्धेय है एवं निर्विकल्प ध्यान का ध्येय है।
इसके विपरीत विशेष, अनित्यता, अनेक और भेद - यद्यपि ये भी वस्तु के ही धर्म हैं, किन्तु ये पर्यायार्थिकनय के विषय होने से दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं हो सकते। जो-जो पर्यायार्थिकनय के विषय हैं, वे भले द्रव्य या द्रव्यांश हों, गुण या गुणांश हो या पर्यायांश हों - सब पर्यायें ही हैं; अतः ये दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं होते।।
प्रमत्त-अप्रमत्त दशाओं से और गुणभेद से भिन्नता की बात कहकर भगवान आत्मा को पर्याय से भिन्न बताया है; क्योंकि प्रमत्त व अप्रमत्त दशायें तो आत्मा की पर्यायें हैं ही, गुणभेद भी पर्यायार्थिकनय का विषय होने से पर्याय ही है और जो-जो पर्यायार्थिकनय का विषय बनेंगे, उन सबकी पर्यायसंज्ञा है; क्योंकि गुणार्थिक नाम का नय तो कोई है नहीं तथा गुणभेद में भेद की मुख्यता के कारण उसको द्रव्यार्थिकनय का विषय बनाया नहीं जा सकता; क्योंकि द्रव्यार्थिकनय का विषय तो द्रव्य का अभेद, अखण्ड, एक और सामान्य पक्ष ही बनता है।
ध्यान रहे, समयसार की सातवीं गाथा में भगवान आत्मा में विद्यमान गुणों का निषेध करना इष्ट नहीं है; क्योंकि अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड तो भगवान आत्मा है ही। निषेध तो गुणों का नहीं, गुणभेद का किया है; क्योंकि गुणभेद पर्यायार्थिकनय का विषय होने से पर्याय ही है।
प्रश्न - यदि दृष्टि के विषयभूत आत्मा में पर्याय सम्मिलित नहीं है तो फिर आत्मा के द्वारा जानने का || २२