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॥ समाधान - हमें पर्याय को बदलने की इच्छा इसलिए होती है; क्योंकि आत्मा के प्रदेश (क्षेत्र) के श | पलटने से कोई बिगाड़-सुधार नहीं है। यदि माथे में स्थित आत्मा के प्रदेश पैर में चले जायें या पैर में
स्थित प्रदेश माथे में आ जायें तो हमें कोई दुःख नहीं होता है; इसलिए प्रदेशों के कारण कोई बिगाड़-सुधार नहीं है। | चूँकि पर्याय में बिगाड़-सुधार होता है अर्थात् कोई पर्याय हमें दुःखमय लगती है और कोई सुखमय, इसलिए पर्याय को बदलने की इच्छा होती है। लेकिन पर्याय को बदला नहीं जा सकता है। पर्याय के संबंध में जो हमारा अज्ञान है, उसे तो बदला जा सकता है; लेकिन पर्याय को नहीं।
जिसप्रकार विस्तार के क्रम को क्षेत्र कहते हैं, उसीप्रकार प्रवाह के क्रम को काल कहते हैं। जिसप्रकार क्षेत्र से भगवान आत्मा अखण्ड है, उसीप्रकार काल से भी भगवान आत्मा अखण्ड है।
यदि हम लोगों की समझ में यह बात आ जाय कि काल से भगवान आत्मा अखण्ड है' तो फिर हम पर्याय को पलटने की बात सोचेंगे ही नहीं; क्योंकि उसमें पलटाव हो ही नहीं सकता है।
शंका - यदि ऐसा है तो हमारे पुरुषार्थ का क्या होगा?
समाधान - अरे भाई! जिस दिन हमें यह बात समझ में आएगी, उस दिन ही सच्चा पुरुषार्थ प्रकट होगा। अभी तो हम अज्ञानवश राग-द्वेष के जनक पर में फेर-फार करने को, धनार्जन एवं कामभोग की क्रियाओं को पुरुषार्थ समझते हैं, जो वस्तुत: नरक निगोद में डालनेवाला, संसार में घुमानेवाला अन्यथा पुरुषार्थ है। असली पुरुषार्थ तो उस दिन प्रकट होगा जिस दिन हम यह स्वीकार करेंगे कि भगवान आत्मा काल से भी अखण्ड है अर्थात् पर्याय में भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
इसप्रकार प्रदेशों की अखण्डता को विस्तारक्रम कहते हैं और वह प्रदेशों की अखण्डता द्रव्यार्थिकनय का विषय है। वे सभी प्रदेश अनादि-अनंत और अखण्ड हैं। अखण्ड होने के बावजूद भी उनको अलग-|| सर्ग अलग जाना जा सकता है। यदि उनको अलग-अलग नहीं जाना जा सकता होता तो हमने यह कैसे जाना ||२३
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