________________
(२७७
द्रव्य है, पर्याय नहीं । दृष्टि के विषय में विशिष्ट पर्याय का ही निषेध है, काल के अभेद का निषेध नहीं । | काल का अभेद तो दृष्टि के विषय में शामिल हैं।
श
ला
का
पु
श्रोता को शंका हुई - यहाँ 'काल का अभेद' क्यों कहा ? पर्यायों का अभेद क्यों नहीं कहा? भरत केवली की वाणी में आया - · क्योंकि यदि 'पर्यायों का अभेद' दृष्टि के विषय में शामिल है, ऐसा कहते हैं तो लोगों को ऐसा लगता है कि दृष्टि के विषय में पर्याय को शामिल कर लिया है। अरे भाई ! पर्यायों को नहीं, पर्यायों के अभेद को सम्मिलित किया है; क्योंकि! पर्यायों का अभेद तो द्रव्यार्थिकनय का विषय होने से द्रव्य ही है, पर्याय नहीं । इसप्रकार पर्यायों का अभेद अथवा काल का अभेद दृष्टि के विषय में शामिल है।
रु
ष
"भूतकाल की पर्यायें तो विनष्ट हो चुकी हैं, भविष्य की पर्यायें अभी अनुत्पन्न हैं और वर्तमान पर्याय स्वयं दृष्टि है, जो विषयी है; वह दृष्टि के विषय में कैसे शामिल हो सकती हैं? विषय बनाने के रूप में तो वह शामिल हो ही रही हैं, क्योंकि वर्तमान पर्याय जबतक द्रव्य की ओर न ढले, उसके सन्मुख न हो, उसे स्पर्श न करे, उससे तन्मय न हो, उसमें एकाकार न हो जाय तबतक आत्मानुभूति की प्रक्रिया भी सम्पन्न नहीं हो सकती। इसप्रकार वर्तमान पर्याय अनुभूति के काल में द्रव्य के सन्मुख होकर तो द्रव्य से अभेद होती ही है, पर यह अभेद अन्य प्रकार का है, गुणों और प्रदेशों के अभेद के समान नहीं ।'
99
सभी पर्यायें पर्यायार्थिकनय का विषय होने से दृष्टि के विषय में शामिल नहीं हैं, लेकिन जो पर्यायों का अभेद अर्थात् काल की अखण्डता है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय होने से दृष्टि के विषय में शामिल है । धर्मचक्र को आगे कर धर्मोपदेश द्वारा जगत का कल्याण करने के लिए भगवान भरत का विहार होता का है, तत्पश्चात् विहार करना भी समाप्त हो गया, गंधकुटी विघट गई और योग निरोध कर योग का भी त्याग कर केवली समुद्घात करके मुक्ति प्राप्त कर ली। इसप्रकार गर्भ से लेकर निर्वाणपर्यन्त भरतजी ने जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह सभी भव्यजीवों को अनुकरणीय है ।
भरत के मोक्ष प्राप्त करने पर इन्द्रादि ने उनकी पूजा की। परिजन, पुरजन उनके उपकारों को याद करते हुए उनका गुणगान करते रहे ।
द्र
Boost
व्य
दृ
ष्टि
वि
ष
य
सर्ग