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जीव प्रतिसमय पलट रहा है, अनादिकाल से पलट रहा है एवं अनंतकाल तक पलटेगा, फिर भी वह | श || पलटकर कभी अजीव नहीं होगा, बस यही उसका नित्यपना है।
___'एक द्रव्य कभी दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता है' - इसका नाम है कभी नहीं पलटना एवं अपने में निरन्तर परिवर्तन होने का नाम पलटना है। भगवान आत्मा में अनंतगुण हैं व असंख्य प्रदेश हैं और उन अनंत गुणों में से कभी भी एक गुण कम नहीं होगा और असंख्य प्रदेशों में से कभी भी एक प्रदेश कम नहीं होगा। जिसप्रकार यह नित्यस्वभाव है; उसीप्रकार 'प्रत्येक गुण में प्रतिसमय परिणमन होगा' - यह भी नित्यस्वभाव ही है। मात्र 'नहीं पलटना' ही नित्यस्वभाव नहीं है; अपितु 'प्रतिसमय पलटना' भी नित्यस्वभाव है।
इसप्रकार नित्य में 'वस्तु की सदा उपस्थिति' मात्र इतना ही नहीं है, अपितु प्रवाह की निरन्तरता भी शामिल है। यह नित्यता ही काल की अखण्डता है, जो दृष्टि के विषयभूत द्रव्य का अभिन्न अंग है।
द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य है - यह भाषा तो अधूरी है। पूरी भाषा तो यह है कि 'द्रव्यदृष्टि से द्रव्य (वस्तु) नित्य है और पर्यायदृष्टि से द्रव्य अनित्य है।
नित्यता व अनित्यता का विशिष्ट अर्थ : नित्यता का अर्थ 'वस्तु की सदा उपस्थिति' ही नहीं है, अपितु || उसमें प्रवाह की निरन्तरता भी शामिल है; क्योंकि नित्यता और अनित्यता दोनों में काल की अपेक्षा है। नित्यता में भी काल की अपेक्षा है और अनित्यता में भी काल की अपेक्षा है। वस्तु नित्य भी काल की अपेक्षा से है और अनित्य भी काल की अपेक्षा से है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में काल को पर्याय कहते हैं।
द्रव्य-गुण-पर्याय में पर्याय को काल कहा जाता है, भाव को गुण कहा जाता है और द्रव्य स्वयं वस्तु है; इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय में प्रदेशों को शामिल नहीं किया है।
जिसप्रकार गुणों में स्वभावभेद है, वैसा स्वभावभेद प्रदेशों में नहीं है। ज्ञान, दर्शन गुणों की भाँति प्रदेशों || सर्ग | में ऐसा कोई भेद नहीं हैं कि यह प्रदेश देखने का काम करेगा या यह प्रदेश जानने का काम करेगा। ॥२३
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