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दृष्टि का विषय एक श्रोता के मन में प्रश्न उठा - अध्यात्मियों को तो व्यवहारनय का प्रयोग प्रयोजनवान नहीं है ?
उत्तर - यह कहना उचित नहीं है; क्योंकि 'यदि सिद्धान्त का अध्ययन करना है तो व्यवहारनय की मुख्यता से गोम्मटसार का स्वाध्याय करना आवश्यक है और यदि अध्यात्म जानना है तो निश्चयनय की मुख्यता से आत्मख्याति का स्वाध्याय करना आवश्यक है।।
हाँ, इतना अवश्य है कि - आत्मानुभूति के काल में निश्चय को ही मुख्य रखना चाहिए, व्यवहार को नहीं। 'तत्त्व के अन्वेषण के काल में शुद्धात्मा को युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने । पश्चात् आराधना के समय अनुभव के काल में नय-प्रमाण नहीं है; क्योंकि वह प्रत्यक्ष अनुभव है।
इसप्रकार व्यवहार के प्रयोग का निषेध तो मात्र अनुभव के काल में है। तत्त्व के अन्वेषण के काल में तो व्यवहार का समर्थन किया है। अतः 'निश्चय को ही सदैव मुख्य रखना, व्यवहार को नहीं' - यह बात कहाँ रही ?' वास्तव में तो निश्चय से ज्यादा व्यवहार का काल है। जिन जिज्ञासुओं को सम्यग्दर्शन नहीं हुआ, उनको तो हमेशा व्यवहार ही मुख्य है; क्योंकि उनका तो पूरा काल तत्त्वान्वेषण का ही है। सम्यग्दृष्टि को भी छह महीने में एकबार ही क्षणिक अनुभूति होती है, उसके अतिरिक्त समग्रकाल तो व्यवहार का ही है। पंचम गुणस्थानवाले को पन्द्रह दिन में एक बार और वीतरागी मुनिराज को भी चौबीस घण्टे में केवल आठ घण्टे ही अनुभूति रहती है। सोलह घण्टे तो उनका भी व्यवहार में समय जाता है।
यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि मुनिराज के उन आठ घण्टों में भी लगातार अनुभूति नहीं रहती; . क्योंकि यदि अन्तर्मुहूर्त भी लगातार अनुभूति रह जाय तो केवलज्ञान हो जाता है।
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