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भेद भी वस्तु का वैसा ही स्वरूप है जैसा कि अभेद । यदि भेद को वस्तु में से निकाल दिया तो पूरी वस्तु ही खण्डित हो जायेगी । इसलिए भेद को गौण करने के लिए कहा जाता है, निषेध के लिए नहीं ।
यदि अभेद वस्तु को स्पष्ट देखना हो तो भेद को गौण करना ही होगा। उस भेदवाली आँख को अभेद को देखते समय ही सर्वथा बन्द रखना है, हमेशा बन्द नहीं रखना है। समय आने पर उसे खोलना भी पड़ेगा ।
आत्मा में द्रव्यभेद, क्षेत्र भेद, कालभेद और गुण भेद तो रहेंगे, किन्तु यदि दृष्टि के विषयभूत आत्मा को प्राप्त करना है तो इन भेदों को गौण करना होगा, इन चारों के अभेदस्वरूप पर दृष्टि करनी होगी।
यद्यपि भेद भी वस्तु के स्वरूप में सम्मिलित है और अभेद भी सम्मिलित है, किन्तु निर्विकल्प अनुभूति भेद के लक्ष्य से नहीं होती। इस प्रयोजन से भेद को गौण करना आवश्यक है। हाँ, जब बात को विस्तार | से समझना / समझाना हो तब भेद को मुख्य किया जाता है। जब हम पर्याय को नहीं देखते, पर्याय की उपेक्षा करते हैं, तब भी हमारा प्रयोजन पर्याय को शुद्ध करना ही होता है ।
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जिसप्रकार अनाप-शनाप खर्च करनेवाले बेटे को उसका पिता मन-माना पैसा नहीं देता है, पूर्व में दिए पैसे का भी हिसाब पूछकर मर्यादित ही देता है तो उसमें भी पिता का प्रयोजन उस बेटे के लिए ही पैसों की बचत करना होता है । यद्यपि वही पिता बाद में उसको पाँच करोड़ अर्थात् समस्त सम्पत्ति देनेवाला है, परन्तु अभी उसी बेटे के हित में ही अनावश्यक पाँच रुपये भी नहीं देता है । इसीप्रकार पर्याय की शुद्धि के लिए ही पर्याय को दृष्टि के विषय में गौण करते हैं । फिर भी यहाँ पर्याय सर्वथा गौण कहाँ हुई? 'पर्याय की शुद्धि के लिए' - इस अपेक्षा तो पर्याय मुख्य ही है न! इसी सम्बन्ध में निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है - वि "अपनी आत्मवस्तु के इन चार युगलों में सामान्य, अभेद, नित्य और एक - इनकी एकता द्रव्यार्थिकनय का विषय बनती है और इसीकारण इसका नाम द्रव्य है। बस यही द्रव्य द्रव्यदृष्टि का विषय बनता है, इसमें अपनापन स्थापित होना ही सम्यग्दर्शन है। इसके विरुद्ध अपनी आत्मवस्तु के विशेष, भेद तथा उसकी अनित्यता एवं अनेकता की पर्यायसंज्ञा है और इनमें अपनापन होना ही मिथ्यादर्शन है।
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