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की अखण्डता है और उन प्रदेशों और पर्यायों में अनुस्यूति से रचित प्रवाह है। जो अन्वयरूप है और वह अन्वय द्रव्य का लक्षण है तथा पर्यायों में जो परस्पर व्यतिरेकीपना भिन्नता है, वह पर्याय का लक्षण है।
पर्यायों के प्रवाह का नाम तो द्रव्य है। यदि अनुस्यूति से रचित उस प्रवाह को ही पर्याय मानकर द्रव्य से निकालते हैं तो मात्र पर्याय खण्डित नहीं होती है, अपितु द्रव्य खण्डित होता है। अनुस्यूति से रचित प्रवाह तो नित्यता का लक्षण है। यदि उस नित्यत्व नामक धर्म को निकालेंगे तो भगवान आत्मा भाव से खण्डित हो जाएगा। यदि द्रव्य में से अनुस्यूति से रचित प्रवाह को निकाला तो अन्वय निकल जायेगा, जबकि निकालना (व्यतिरेक) पर्याय को है।
उन पर्यायों का अलग नहीं होने का ही नाम अनुस्यूति से रचित प्रवाह है, वह अन्वय है तथा वह अन्वय दृष्टि के विषय में शामिल है। ‘अनुस्यूति से रचित प्रवाह गुण है, पर्याय नहीं।
दृष्टि के विषयभूत द्रव्य में (१) सामान्य के रूप में द्रव्य (२) एक के रूप में अनंतगुणों का अखण्ड पिण्ड (३) अभेद के रूप में असंख्यप्रदेशों का अखण्डपिण्ड और (४) नित्य के रूप में अनंतानंत पर्यायों का सामान्यांश - इन सभी को शामिल किया गया है।
अनन्तानन्त पर्यायों के सामान्यांश को ही 'वृत्ति का अनुस्यूति से रचित प्रवाह' कहा जाता है।
पर्यायों के प्रवाह से अलग कोई अन्य नित्य नहीं है। दृष्टि के विषय में इस नित्य का निषेध नहीं है। निषेध तो गुणभेद व प्रदेशभेद का है।
छह द्रव्यों और सात तत्त्वों के संदर्भ में दृष्टि का विषय : द्रव्यव्यवस्था में तो छह द्रव्यों को जीव एवं अजीव के भेद से दो द्रव्यों के रूप में कहा जा सकता है; लेकिन तत्त्वव्यवस्था के अन्तर्गत साततत्त्वों को जीव-अजीव - इन दो तत्त्वों के रूप में नहीं कहा जा सकता है, वहाँ तो साततत्त्वों में जीव, अजीव के || बाद पृथक् से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष का उल्लेख किया है, इससे स्पष्ट होता है कि आस्रवादि || २३
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