Book Title: Salaka Purush Part 1
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 250
________________ FREE काम भी संभव नहीं होगा; क्योंकि जानना तो स्वयं पर्याय है। जाननेरूप पर्याय के कारण ही तो आत्मा को ज्ञायक कहा जाता है न! जब आत्मा में न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है; वह तो उसके ज्ञायकता कैसे संभव है ? | उत्तर - ध्यान रहे, पर्याय को मात्र दृष्टि के विषय में से निकाला है, वस्तु में से नहीं, द्रव्य में से भी | नहीं तथा गौण करने के अर्थ में ही पर्याय के अभाव की बात कही गई है और समयसार की सातवीं गाथा || में भी गुणभेद से भिन्नता की बात कहकर भी पर्याय से ही पार बताया है, गुणों से भिन्न नहीं बताया; क्योंकि | गुणभेद का नाम भी तो पर्यायार्थिकनय का विषय होने से पर्याय ही है। देखो, प्रयोजन की दृष्टि से ही गुण एवं गुणभेद को पृथक्-पृथक् पक्ष में खड़ा किया है। इनमें गुणों को तो अभेदपने दृष्टि के विषय में सम्मिलित कर दिया और गुणभेद को दृष्टि के विषय में से निकाल दिया है, पृथक् कर दिया है; क्योंकि निर्विकल्प की ग्राहक दृष्टि भेद को विकल्पात्मक होने से स्वीकार नहीं करती। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नयों की भाषा में कथन की गई एक अपेक्षा मुख्य एवं शेष अनुक्त अपेक्षायें गौण होती हैं। परमशुद्ध निश्चयनय के विषय में वस्तु का सामान्य, अभेद, अखण्ड और एक, पक्ष मुख्य रहता है और यही दृष्टि का विषय बनता है तथा वस्तु का विशेष, भेद, अनेक और खण्ड-खण्ड पक्ष पर्यायार्थिकनय का विषय है और यह दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं होता अर्थात् गौण रहता है। ___तात्पर्य यह है कि - दृष्टि के विषय में पर्यायार्थिकनय की विषयवस्तु, जिसके विशेष, अनित्य और खण्ड-खण्ड भेद - ऐसे चार अंश होते हैं; इनकी पर्याय संज्ञा है और ये दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं होते तथा जो सामान्य आदि चार अंश हैं, उनकी द्रव्यसंज्ञा है और वे दृष्टि के विषय में सम्मिलित हैं। 'पज्जयमूढ़ा हि पर समयाः' की व्याख्या करते हुए कहा है कि - उक्त गाथा में असमानजातीय द्रव्यपर्यायों को मुख्य किया है। असमानजातीय द्रव्यपर्यायों में मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच आदि को ग्रहण किया ||२२

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