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२५४| है जो वस्तु को पर-चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप स्वीकार नहीं करेगा? यदि कोई ऐसा है भी तो वह अपनी
| इस बात को सिद्ध नहीं कर पायेगा अर्थात् जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव - इन चार को स्वीकार नहीं करेगा तो उसके मतानुसार वस्तुव्यवस्था ही नहीं बनेगी; क्योंकि द्रव्य का अर्थ है वस्तु, क्षेत्र का अर्थ है प्रदेश, काल का अर्थ है पर्याय और भाव का अर्थ है गुण । जिसमें ये द्रव्य-गुण-पर्याय और प्रदेश सम्मिलित हैं, उसका नाम ही वस्तु है।"
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने कहा है कि "अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं।" यहाँ 'अनादिनिधन' कहकर काल की बात कही है।
जब दृष्टि के विषय में पर्याय का निषेध किया जाता है तो हम उपर्युक्त काल नामक अंश का निषेध समझ लेते हैं, जबकि वस्तु के जो चार अंश-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप हैं, उनमें कालांश तो दृष्टि के विषय में शामिल है। उसे द्रव्य में से निकाल देने पर तो द्रव्य के ही खण्डित होने का खतरा है; फिर भी अज्ञजनों द्वारा काल अंश को पर्याय समझकर उसका निषेध कर दिया जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने भी यही कहा है कि - काल के बिना अखण्ड वस्तु स्वीकार नहीं की जा सकती।
आचार्य अमृतचन्द्र ने भी लिखा है कि - 'न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि । न तो मैं द्रव्य से खण्डित हूँ, न क्षेत्र से खण्डित हूँ, न काल से खण्डित हूँ और न भाव से खण्डित हूँ, मैं तो एक अखण्ड तत्त्व हूँ।' यदि वस्तु में से काल-खण्ड निकाल दिया जाय तो वह वस्तु काल से खण्डित हो जायेगी और फिर वह वस्तु ही नहीं रहेगी।
द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिकनय का विषय : देखो, जिसप्रकार गुणों का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय है और गुणभेद पर्यायार्थिकनय का, प्रदेशों का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय और प्रदेश भेद पर्यायार्थिकनय का, द्रव्य का अभेद (सामान्य) द्रव्यार्थिकनय का विषय है और द्रव्यभेद (विशेष) पर्यायार्थिकनय का; उसीप्रकार काल (पर्यायों) का अभेद अर्थात् पर्यायों का परस्पर अनुस्यूति से रचित प्रवाहक्रम अर्थात् अखण्ड
Saali
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