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ध्यान कहा जाता है और उपयोग स्वयं पर्याय है । अब यदि वह उपयोग (पर्याय) त्रिकालीध्रुव में अभेद एकाकार नहीं हो तो आत्मा का ध्यान नहीं होगा। उन दोनों के बीच में यदि थोड़ी भी सांध (गेप) रहेगी, | तो आत्मा का निरन्तर ध्यान कैसे होगा ?
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आगम में प्रदेशों की अखण्डता को वस्तु की समग्रता और परिणामों की अखण्डता को वृत्ति की समग्रता प कहा है। वस्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमय होती है । वस्तु में दो चीजें होती हैं । - एक का नाम है र्या विस्तारक्रम और दूसरी का नाम है प्रवाहक्रम । विस्तार क्रम क्षेत्र की अपेक्षा होता है और प्रवाहक्रम काल य की अपेक्षा होता है । आत्मा के असंख्यात प्रदेशों को इसप्रकार फैला दें कि एक प्रदेश में दूसरा प्रदेश न | रहे तो वे प्रदेश सम्पूर्ण लोक में फैल जाएँगे ।
परमाणु की रचना षट्कोणमय होती है इसकारण जगह बिल्कुल भी खाली नहीं रहती है, बीच में जिसप्रकार परमाणु में छह तरफ से छह परमाणु चिपक सकते हैं; उसीप्रकार आत्मा के प्रदेशों में भी एक प्रदेश को छह प्रदेश घेरे हुए हैं। आत्मा के वे प्रदेश अनादिकाल से अनंतकाल तक उसी स्थिति में रहेंगे, | चाहे वे प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जायें या वे छोटे शरीर में आकर सिमट जायें।
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केवली समुद्घात में जो लोकपूरणदशा होती है, उसमें लोकाकाश के एक-एक प्रदेश के ऊपर आत्मा का एक-एक प्रदेश रहता है अर्थात् जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही एक आत्मा के प्रदेश हैं; आत्मा के लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है। लोकाकाश में जो असंख्यात प्रदेश हैं अर्थात् तीनों लोक में वि जो ऊपर-नीचे, अगल-बगल में प्रदेश हैं, उन प्रदेशों का स्थान अनादि काल से निश्चित है और अनंतकाल | तक रहेगा। एक भी प्रदेश एक इंच भी इधर-उधर नहीं हिलेगा तथा उन प्रदेशों में एक प्रदेश के छहों कषायों में किस-किस तरफ कौन-कौन से प्रदेश रहेंगे, यह भी निश्चित है ।
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जिसप्रकार रूमाल में जो धागे रहते हैं, वे अगल-बगल से एक निश्चित क्रम में बुने रहते हैं। रूमाल | को हम चाहे जैसा भी घुमाते रहें, फिर भी उनका क्रम भंग नहीं होता है अर्थात् क्रम बदलता नहीं है ।
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