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२४८ होते हैं, जिनको मिलकर ही वस्तु पूर्ण होती है, उन चारों में एक का नाम 'द्रव्य' है । वह द्रव्य या द्रव्यांश भी अकेला दृष्टि का विषय नहीं है । इसतरह लोक में और भी अनेक अर्थों में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग होता है । जैसे (५) पूजन के अष्ट द्रव्य, (६) अष्टमंगल द्रव्य आदि ये कोई भी 'द्रव्य' दृष्टि के विषय नहीं हैं - श्रद्धा के श्रद्धेय नहीं हैं।
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श्रोता का प्रश्न – हे प्रभो ! “तो फिर दृष्टि का विषय कौन-सा द्रव्य है अथवा द्रव्यदृष्टि क्या है?”
भरत केवली की वाणी में आया - “हे भव्य ! 'दृष्टि' शब्द के मूलतः दो अर्थ हैं। एक श्रद्धा और दूसरा 'अपेक्षा ।' प्रथम 'श्रद्धा' के अर्थ में 'दृष्टि के विषय' की बात करें तो हमारी दृष्टि का विषय, हमारी सत् श्रद्धा का श्रद्धेय हमारे परम शुद्ध निश्चयनय के विषयभूत ज्ञान का ज्ञेय और हमारे परम ध्यान का ध्येय शुद्धात्मा है, कारण परमात्मा है ।"
"प्रभो! कृपया स्पष्ट करें कि हम अपनी श्रद्धा किस पर समर्पित करें, किसे अपने निश्चयनय के ज्ञान का ज्ञेय बनाये और किसे अपने निर्विकल्प ध्यान का ध्येय बनाये, जिससे कि हमारा मोक्षमार्ग सध सके; रत्नत्रय की आराधना, साधना एवं प्राप्ति हो सके, हम प्राप्तपर्याय में पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकें ?" “हे भव्य ! जो व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि 'द्रव्यदृष्टि का विषय' मात्र सम्यग्दर्शन का विषय है, वे भ्रम | में हैं । यह मात्र सम्यग्दर्शन का विषय नहीं, अपितु यह सत् श्रद्धा का श्रद्धेय, परम शुद्ध निश्चयनय के ज्ञान का ज्ञेय और निर्विकल्प परम ध्यान का ध्येयरूप सम्यक्चारित्र का साध्य है, निश्चयरत्नत्रय का विषय है ।
'द्रव्यदृष्टि' और 'पर्यायदृष्टि' वाक्यों में जो 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग है, वह सम्यक्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि वाक्यों में प्रयुक्त दृष्टि शब्द का वाचक या सूचक नहीं; अपितु अपेक्षा का सूचक है । 'द्रव्यदृष्टि' अर्थात् द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से और 'पर्यायदृष्टि' अर्थात् पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ।"
श्रोता का पुनः प्रश्न “प्रभो ! यह तो जाना; परन्तु शास्त्रों में बहुत-सी अपेक्षाओं से पर्याय का वर्णन | है, इसलिए द्रव्यदृष्टि के संदर्भ में पर्याय शब्द का भी यथार्थ अर्थ समझाने की कृपा करें।"
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