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भरतेश्वर कुमारों की आध्यात्मिक विद्या की सामर्थ्य को देखकर दर्शक एवं श्रोता आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने बाल्यकाल में ही अनेक लौकिक विद्याओं के साथ अर्हद्भक्ति, भेदभक्ति, अभेदभक्ति आदि के रहस्यों को समझ लिया था और आत्मतत्त्व का निरूपण कर बड़े-बड़े योगियों की बराबरी करते थे। ऐसे सुपुत्रों का जीवन धन्य है। || भरतेश्वर के पुत्र जब आत्मतत्त्व के विचारों में डुबकी लगा रहे थे, तभी उन्होंने एक नवीन समाचार सुना
- "हस्तिनापुर के अधिपति और भरत के सेनापति जयकुमार ने सुलोचना जैसी महारानी और सम्पूर्ण राजपाट से मोह-ममत्व त्याग कर समवसरण में जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली है" तो वे स्तब्ध रह गये।
भरतेश्वर के पुत्रों को यह जिज्ञासा हुई कि राजा जयकुमार ने राज्यभार किसे सौंपा होगा? इस संबंध में उन्हें यह समाचार मिला कि जयकुमार ने विजय और जयन्त नामक भाइयों को सत्ता सौंपने का निश्चय किया था; किन्तु दोनों भाइयों ने यह कहकर राजसत्ता लेने से मना कर दिया कि “जिसे आप हेय जानकर छोड़ रहे हैं, उसे हम कैसे ग्रहण कर सकते हैं। हम भी आपके साथ दीक्षित होना चाहते हैं। जो समझ तुमरी सोइ समझ हमरी, फिर हम नृप पद क्यों गहें ?"
राजा जयकुमार ने अपने पुत्र अनन्तवीर्य को राज्य प्रदान कर राज्याभिषेक किया और अपने दोनों सहोदरों के साथ जिनदीक्षा ले ली। यद्यपि अभी अनन्तवीर्य मात्र छह वर्ष का था, परन्तु वैराग्य परिणति जब उत्पन्न हो जाती है, तब फिर वे राज्यशासन को संभालने योग्य उम्र की प्रतीक्षा भी तो नहीं कर सकते थे। उन्हें अपने जीवन की क्षणभंगुरता का भी आभास हो गया था। वे सोचते हैं - "जब अपना जीवन ही समाप्त हो जावेगा तब भी तो यह राज्य व्यवस्था चलेगी ही। वस्तुत: तो हम इसके संचालक हैं ही नहीं। जैसे समस्त विश्वव्यवस्था स्वसंचालित है वैसे ही यह राज्य भी स्वसंचालित है, हम तो अपने मोह और अज्ञान से इसके कर्ता बन बैठे थे, आज महाभाग्य से यह वैराग्य भाव जाग्रत हुआ है, अत: इस अवसर को चूकना योग्य नहीं है ?" बस यही सब सोच भरत के सेनापति राजा जयकुमार अपने सहोदरों के साथ दीक्षित हो || सर्ग गये। इस समाचार को सुनते ही उन सब भरत पुत्रों को आश्चर्य हुआ।
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