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में परिस्पन्दन होता है एवं आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन से कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है। इसप्रकार तत्त्वाभ्यास न करना ही आस्रव-बंध के स्रोत हैं। अत: नियमित स्वाध्याय और तत्त्वचर्चा के माध्यम से निरन्तर तत्त्वाभ्यास करें तभी आस्रव-बंध का अभाव होकर संवर-निर्जरा पूर्वक मोक्ष की सिद्धि होती है। यही एक | मात्र मोक्ष का उपाय है या मोक्षमार्ग है।
पुन: प्रश्न - आत्मध्यान के बिना कर्मनिर्जरा नहीं हो सकती, यह बात पूर्ण सत्य है, पर वह ध्यान क्या है लल? कैसे होता है ? यह भी तो बतायें? | उत्तर - हाँ, हाँ, सुनो! यदि आत्मा को जानना ही सद्ज्ञान है तो उस आत्मा को जानते रहना ही ध्यान है। अपने ज्ञान को या मन को पर और पर्यायों पर से हटाकर, पाँचों इन्द्रियों के विषयों, मनोविकारों और पर-पदार्थों पर से हटाकर शुद्ध आत्मा पर केन्द्रित करना ही ध्यान है।
जिसतरह चारों दिशाओं में एवं सम्पूर्ण विश्व में विकेन्द्रित सूर्य की किरणों को यदि लैंस (कांच) के द्वारा एक वस्तु पर केन्द्रित कर दिया जाये वे किरणें लोहे को भी पिघला सकती हैं। वर्तमान में सूर्य ऊर्जा का सदुपयोग रसोईघर और स्नानघर को भी प्रभावित करने लगा है। स्नानगृह का पानी सूर्य ऊर्जा से गर्म होता है और भोजन भी सूर्य ऊर्जा से पकता है। उन वैज्ञानिकों ने जिसतरह सूर्य ऊर्जा का सदुपयोग किया यदि उसीप्रकार हम अपने आत्मारूप सूर्य की विकेन्द्रित किरणों को आतमा पर केन्द्रित कर दें तो ४८ मिनिट में सम्पूर्ण कर्म कलंक जलकर भस्म हो जायेंगे और हमारा आत्मा कुन्दन की भांति केवलज्ञान की चमक उत्पन्न कर परमात्मा बन जायेगा, सिद्ध हो जायेगा।
अनेकप्रकार से तत्त्व चिन्तन करना स्वाध्याय है। एक ही विचार में मन को लगाना सामान्य ध्यान है और आत्मा में मन को स्थिर करना निश्चय से धर्मध्यान है। इस धर्मध्यान में आंशिक रूप से अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति होती है, सिद्धों जैसे निराकुल सुख का अनुभव होता है।
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