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उन्होंने अपने बड़े पुत्र अर्ककीर्ति को उत्तराधिकार सौंपने हेतु बुलाया, पर वह राजी नहीं हुआ, उसने भी साथ ही दीक्षा लेने की भावना प्रगट की, उससे छोटे पुत्र आदिकुमार से कहा तो वह भी कंटकाकीर्ण राज्यसत्ता से निर्मोही हो, निष्कंटक मुक्ति साम्राज्य प्राप्त करने की इच्छा प्रगट करने लगा ।
अन्तत: भरतजी ने बलात् अर्ककीर्ति के माथे पर अपना राज्यशासन का मुकुट उतार कर रख दिया और पु सिंहासन से उठकर वन की ओर जाने को अग्रसर हो गये । उनके साथ उनकी अनेक रानियाँ तथा अनेक मुकुटबद्ध राजा भी दीक्षा लेने को तत्पर हो गये ।
तत्पश्चात् महाराज भरत साम्राज्य पद को छोड़ते हुए दीक्षा लेने के लिए जब अग्रसर हुए, तब लौकान्तिक | देवों ने उनके वैराग्य की अनुमोदना की, जब राजभवन से निकलते हैं तो मुख्य-मुख्य राजा लोग उन्हें पालकी | में बैठा कर पालकी को अपने कन्धों पर रखकर कुछ दूर ले जाते हैं, इसीसमय भक्ति से भरे हुए देवगण | उन्हें अपने कन्धों पर उठा लेते हैं । जिसे साम्राज्य प्राप्त हुआ - ऐसे कुमार अर्ककीर्ति को आगे करके बड़े | प्रेम से समस्त राजा लोग वैरागी भरत के समीप खड़े होते हैं। जिनका उनके समीप रहना छूट गया है - ऐसी निधियों और चौदह रत्नों के समूह संसार से विरक्त भरतजी के पीछे-पीछे आते हैं और सभी मिलकर | महाराजा भरत जो अब मुनिराज भरतजी बन गये हैं, उनका यथायोग्य दीक्षाकल्याणक का महोत्सव मनाते हैं।
भरतेश का आत्मबल अचिन्त्य है, उनका देहबल भी अतुल है । जीवन के अन्तसमय तक सातिशय भोगों को भोगकर समय पर आत्महित में प्रवृत्त होना उन जैसे महापुरुष का ही काम है । यह साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है" - ऐसा कहते हुए नगर के नर-नारी उनकी स्तुति कर रहे थे ।
भरतेश की दीक्षा - भरतेश शिलातल पर पद्मासन से बैठकर दीक्षा के लिए सन्नद्ध हुए। उनका निश्चय था कि मेरा कोई गुरु नहीं, मैं ही मेरा गुरु हूँ, इसप्रकार के विचार के साथ वे स्वयं दीक्षित हो गये और निश्चल आसन से बैठकर आत्मनिरीक्षण करने लगे ।
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