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॥ वे मुनिराज भरत जब बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर पूर्ण निष्परिग्रह अवस्था को प्राप्त होकर सर्वश्रेष्ठ जिनकल्प तपोयोग को धारण करते हैं, तब क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर शुक्लध्यान रूपी अग्नि से घातिया कर्मरूपी सघन वन को जला कर केवलज्ञान नामक उत्कृष्ट ज्ञानज्योति को प्रगट कर लेते हैं। ___ भरतेश जब अन्तरात्म से परमात्मा बन गये। आचार्य कहते हैं कि अध्यात्म की महिमा विचित्र है। वह भरतेश का आत्मा परमज्योतिमय परमात्मा बन कर उस शिलातल से एकदम ऊपर आकाशप्रदेशों को लांघकर इस भूतल से पाँच हजार धनुष ऊपर आकर आकाशप्रदेश में ठहर गया। मानवों और देवगणों ने उन्हें आकाशप्रदेश में देख जयजयकार किया।
स्वर्ग में देवेन्द्र ने भरतेश की उन्नति पर आश्चर्य व्यक्त किया एवं अपनी देवियों के साथ ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर पृथ्वीतल पर उतरा । ऊपर से नीचे आते हुए उन्होंने अन्य देवी-देवताओं को उधर आते देखा। वे सब भगवान भरतेश की स्तुति करते हुए जा रहे थे। सब कह रहे थे - "हे भरत जिनेश्वर! आप जयवन्त रहें।"
ज्ञान और ध्यान के संयोग को योग कहते हैं और उस योग से जो अतिशय तेज उत्पन्न होता है, वही || केवलज्ञानज्योति है। मुनिराज भरतजी को उस केवलज्ञानज्योति के उत्पन्न होने पर इन्द्रों ने जिनपूजा की, उसीसमय केवलज्ञान के अतिशयों के रूप में अष्ट प्रातिहार्य आदि बाह्य विभूतियाँ प्रगट हो गईं। __कुबेर ने उसीसमय गंधकुटी की रचना की। कमलासन को स्पर्श न करते हुए भरत जिनेन्द्र शोभास्पद | हो रहे थे। __भरतेश की सामर्थ्य अचिन्त्य है। उन्होंने दीक्षित होते ही अन्तर्मुहूर्त में पहले मनःपर्ययज्ञान और तुरन्त बाद केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
जिससमय भरतेश ने केवलज्ञान प्राप्त किया, उसीसमय उनके पुत्र-मित्रादि ने भी उत्तमपद प्राप्त किया। ॥ २१
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