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भरतजी का वैराग्य एवं प्रजा को संदेश भरतेश की कीर्ति छह खण्डों में फैल गई। उनकी आयु ८४ लाख पूर्व की थी। 'चिन्ता ही बुढ़ापा है और संतोष ही यौवन है' इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए वे सदैव ही युवा रहे, तत्त्वज्ञान होने से चिन्ता तो उन्हें छू भी नहीं सकती थी। वे चक्रवर्ती पद से प्राप्त भोगों के बीच रहते हुए भी एवं छह खण्ड के राज्यशासन का उत्तरदायित्व वहन करते हुए भी सदा संतुष्ट और निश्चिन्त रहते थे।
एक दिन की बात है। भरतेश ३२ हजार मुकुटबद्ध राजाओं के राजदरबार में सिंहासन पर विराजे थे। उस समय एक घटना घटी 'दर्पण में उन्होंने अपना मुख मण्डल देखा, उन्हें अपने मुख का प्रतिबिम्ब कुछ उदास-सा मुरझाया हुआ लगा । उनको कपोल पर एक झुरकी और कान के समीप एक बाल सफेद दिखाई दिया, मानो वे बुढ़ापे का संकेत लेकर ही आये हों। उन्हें देख भरतजी को विचार आया कि संभवत: यह बुढ़ापे का संकेत और मुक्ति सुन्दरी का संदेश है। उन्होंने अवधिज्ञान जोड़ा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि “आयुकर्म के निषेक बहुत कम रह गये हैं।" अत: उन्होंने उसीसमय संसार से मोह का त्याग कर आत्मस्थ हो गये, वैराग्यमय विचारों में डूब गये।
उन्होंने सोचा - "कितने दुःख का विषय है कि मैंने अबतक ध्यानामृत का पान न कर आत्मानंद का रसपान नहीं किया। देखो, मेरे सहोदर तो अल्पवय में ही दीक्षा लेकर चले गये, मैंने ही देर की। सहोदर ही क्या मेरे पुत्रों ने भी मुनिदीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त कर ली। मेरे पिताजी, श्वसुर, मामा, साले आदि सभी आप्त पुरुष आगे बढ़ गये। मैं अकेला पीछे कैसे रह गया ? लगता है मेरी होनहार ही ऐसी थी। अस्तु; जो | हुआ सो हुआ। अब मुझे शीघ्र इन सब विकल्पों से मुक्त होकर स्वरूपगुप्त हो जाना चाहिए।"
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