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ही है। तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के मुक्त होने पर धर्मात्माओं को शोक होना स्वाभाविक था, क्योंकि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जिन्हें अभी तक दिव्यध्वनि द्वारा दिव्यसंदेश मिल रहा था, वह तो बन्द हुआ ही, अब तो दर्शन भी नहीं होंगे- यह सोच-सोच कर भरतजी एवं धर्मानुरागी जीव भी दुःखी हुए। इष्टवियोग से उत्पन्न हुई और धर्मस्नेह से शोकरूपी अग्नि प्रज्वलित हुई।
भगवान ऋषभदेव के परिजनों एवं समस्त प्रजाजनों का दुःख देखकर उन सबको इस संसारचक्र की यथार्थता का बोध कराने के लिए गणधर वृषभसेन भरतेश को कहते हैं कि “किस प्रकार यह जीव स्नेहवश | अनेक भवों में साथ-साथ रहते हुए जन्म-मरण करता है। जैसे कि इस भव के भगवान ऋषभदेव का जीव अपने इस भव के पुत्रों व मित्रों के साथ अपने पिछले पूर्व भवों में किसप्रकार विचरण करता रहा । मैं उनके एवं इस भव के कुछ पुत्रों एवं मित्रों के पूर्वभव बताता हूँ।
१. इस भव के भगवान ऋषभदेव का जीव दसवें पूर्वभव में जयवर्मा था। नवें पूर्वभव में राजा महाबल, आठवें पूर्वभव में ललितांग देव, सातवें पूर्वभव में राजा वज्रजंघ, छठवें पूर्वभव में भोगभूमि में आर्य, पाँचवें पूर्वभव में श्रीधरदेव, चौथे पूर्वभव में राजा सुविध, तीसरे पूर्वभव में अच्युतेन्द्र, दूसरे पूर्वभव में चक्रवर्ती वज्रनाभि, पहले पूर्वभव में अहमिन्द्र हुए और वहाँ से आकर यहाँ भगवान ऋषभदेव हुए।
२. इस भव के राजा श्रेयांस का जीव दसवें पूर्वभव में धनश्री की स्त्री पर्याय में थी, नवें पूर्वभव में निर्नामिका स्त्री थी, आठवें पूर्वभव में स्वयंप्रभा नाम की देवी थी, सातवें पूर्वभव में श्रीमती नाम की रानी थी, छठवें पूर्वभव में भोगभूमि में आर्या थी । पाँचवें पूर्वभव में स्वयंप्रभदेव, चौथे पूर्वभव में केशव, तीसरे पूर्वभव में प्रतीन्द्र, दूसरे पूर्वभव में धनदत्त, पहले पूर्वभव में अहमिन्द्र हुए और वहाँ से आकर यहाँ राजा श्रेयांस होकर गणधर हुआ।
३. इस भव के तुम (भरत चक्री) का जीव आठवें पूर्वभव में राजा अतिगृद्ध, सातवें पूर्वभव में चौथे पङ्कप्रभा नरक का नारकी, छठवें पूर्वभव में शार्दूल (सिंह), पाँचवें पूर्वभव में दिवाकर देव, चौथे पूर्वभव ॥ २०
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