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(२३३॥ जैसे-जैसे ध्यान का अभ्यास बढ़ता है, चैतन्य प्रकाश भी बढ़ता रहता है। यह निश्चय धर्मध्यान ही ||
शुक्लध्यान का बीज है।
यद्यपि ज्ञानी-ध्यानी जीव अपने निराकुल सुख को व्यक्त नहीं कर सकते, पर वे गूंगे के द्वारा लिये गये मिश्री के स्वाद की भांति स्वयं उस सुख का अनुभव बराबर करते हैं। उस सुख के सामने उन्हें जगत के समस्त सुख फीके लगने लगते हैं। कहा भी है -
जब निज आतम अनुभव आवे, तब और कछु न सुहावे। रस नीरस हो जात ततच्छिन, अच्छ विषय नहीं भावै ।।जब. ।। गोष्ठी कथा कुतूहल विघटे, पुद्गल प्रीति नसावे ।।२।।जब. ।। राग दोष जुग चपल पक्ष जुत, मन पक्षी मर जावै ।।३।।जब. ।। ज्ञानानन्द सुधारस उमगै, घट अन्तर न समावै ।।४।।जब.।। 'भागचन्द' ऐसे अनुभवके, हाथ जोरि सिर नावै ।।५।।
जब निज आतम अनुभव आवे ।। यदि संभव हुआ तो धर्मध्यानी भव्यों के हित के लिए उपदेश तो देता है, किन्तु भव्यों ने उसके उपदेश को उत्साह से सुना या नहीं सुना, इस बात से वह हर्ष-विषाद नहीं करता।
धर्मध्यानी व्यक्ति जो स्वत: अनुभव करता है, उसे कभी उपदेश द्वारा, कभी कृति के रूप में जिज्ञासु जगत के सामने प्रस्तुत करता है। इसप्रकार कोई-कोई आत्मकल्याण के साथ सहजभाव से लोकोपकार भी करते हैं, परन्तु किसी झगड़े-झंझट में नहीं उलझते । धर्मध्यान के बल से अपने कर्मों का संवर और निर्जरा करते हुए आगे बढ़ते हैं।
हवा में रखे दीपक की हिलती हुई लौ (ज्योति) की भांति चंचल मन जिसमें आत्मदर्शन होता है, वह धर्मध्यान है और कांच की पेटी में बन्द हवारहित निश्चय दीपक ज्योति के समान निष्कम्प मन में जो आत्मदर्शन होता है वह शुक्लध्यान है।
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