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चन्द्रकला जिसप्रकार क्रम से धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, उसीप्रकार धर्मध्यान में धीरे-धीरे आत्मानुभव | || बढ़ता है तथा प्रात:कालीन सूर्यबिम्ब का तेजपुंज जिसप्रकार मध्याह्न में अपने प्रताप को लोक में व्यक्त करता है, उसीप्रकार शुक्लध्यान इस आत्मा को प्रकाशित करता है।
प्रश्न - "क्या दोनों ध्यानों में कुछ अन्तर है ?"
उत्तर - “हाँ, दोनों ध्यानों का अन्तर है - धर्मध्यान धीमी क्रान्ति है और शुक्लध्यान महाक्रान्ति है; पर दोनों का लक्ष्य या केन्द्रबिन्दु एक आत्मा ही है। वस्तुत: धर्म ध्यान यदि मुक्ति महल की प्रथम सीढ़ी है तो शुक्लध्यान अन्तिम । धर्मध्यान ज्ञानी (समकिती) गृहस्थ को भी होता है, परन्तु शुक्लध्यान मात्र मुनिराजों की भूमिका में ही होता है। धर्मध्यान कलिकाल के अन्त तक हो सकता है, पर शुक्लध्यान इस कलिकाल के पंचमकाल में इस भरतक्षेत्र में नहीं होगा। धर्मध्यान में विकल (अपूर्ण) निर्जरा होती है और शुक्लध्यान में सकल (पूर्ण) निर्जरा होती है। धर्मध्यान का फल स्वर्ग है और शुक्लध्यान का फल साक्षात् मोक्ष है। व्यवहार धर्मध्यान शुभभावरूप है और शुक्लध्यान वीतराग भावस्वरूप है।
जो व्यवहार धर्मध्यान करते हैं, उनको स्वर्ग सम्पत्ति तो नियम से मिलेगी ही, कालान्तर में आत्मध्यानरूप निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान की सीढ़ी पर पहुँचकर मुक्ति भी प्राप्त होगी।
अन्दर के कषाय भावों का त्याग न कर बाहर सब कुछ त्यागें तो कोई लाभ नहीं। जैसे सर्प कांचली के छोड़ देने से विषरहित नहीं होता।" ___अर्ककीर्तिराज ने प्रश्न किया - "भगवन् अभी आपने कहा कि जबतक आत्मा को आत्मा का (स्वयं का) दर्शन नहीं होता तबतक मुक्ति नहीं होती। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। जो सदाकाल आपकी भक्ति में ही अपना पूरा समय व्यतीत करते हैं, उन्हें मुक्ति क्यों नहीं होगी ?
भगवान की दिव्यध्वनि में आया “वस्तुस्वरूप के निरूपण को सुनकर उसके अनुसार चलना ही वस्तुतः ॥ २०
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