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सबने आश्चर्य की मुद्रा में कहा - "धन्य हैं उनके विचार और धन्य है उनका जीवन ।"
उन सबमें ज्येष्ठ कुमार रविकीर्तिराज ने कहा कि “बिलकुल ठीक है। बुद्धिमत्ता, विवेक व ज्ञान का फल तो मोक्षमार्ग में उद्यम करना ही है। आत्मा की साधना करना ही सम्यग्ज्ञान का प्रयोजन है।
आत्मतत्त्व को पाने के लिए आत्मज्ञान की जरूरत है। परमात्मा का ज्ञान होने पर भी उस पर श्रद्धा की आवश्यकता है। मात्र श्रद्धा व ज्ञान के होने पर भी काम नहीं होता। श्रद्धा व ज्ञान के होने पर जो लोग संयम पालने के लिए अपने सर्वसंग का परित्याग करते हैं, वे धन्य हैं। जयकुमार को जितना धन्यवाद दिया जाय कम है। मेघेश्वर जयकुमार ने तो संसारसुख का खूब अनुभव कर लिया था। राज्यसुख को भी भोग लिया था। तत्पश्चात् इसे हेय समझकर त्याग किया; परन्तु उनके सहोदर विजय व जयंत आदि ने तो इस राज्यलक्ष्मी को मेघमाला समझकर बिना भोगे ही परित्याग किया है। एतदर्थ वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
अपनी यौवनावस्था व शक्ति को शरीर सुख के लिए न बिगाड़कर बहुत संतोष के साथ आत्मसुख के लिए प्रयत्न करनेवाले एवं इस शरीर को तपश्चर्या में उपयोग करनेवाले वे सचमुच धन्य हैं ! वे सब चक्रवर्ती भरत के लिए भी वंद्य बन गये हैं, इसलिए वे धन्य हैं। आजतक वे हमारे पिताजी के आधीन होकर उनके चरणों में विनय से नमस्कार करते थे; परंतु आज हमारे पिताजी (भरतजी) भी सेनापति जयकुमार के चरणों में नमस्कार करते हैं। सचमुच में जिनदीक्षा का महत्त्व अवर्णनीय है। परब्रह्म स्वरूप को धारण करनेवाले योगियों को हमारे पिताजी नमस्कार करें तो इसमें बड़ी बात क्या है ? जिसप्रकार भ्रमर सुगंधित पुष्पों पर झुक जाते हैं, उसीप्रकार योगियों के चरणों में तो तीनों लोक झुक जाते हैं।
ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि सेनापति जयकुमार भरतजी से भी पहले दीक्षित हो गये थे। इसकारण भरत पुत्रों को यह विचार आ रहा है कि जो सेनापति जयकुमार पिताश्री भरतजी को नमस्कार करते थे, आज वे ही भरतजी के वंदनीय बन गये। ___ "सुजय! सुकान्त! आप लोग अच्छी तरह सुनो! दीक्षा से बढ़कर दुनिया में दूसरा कोई काम नहीं है। ॥ १७
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