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उत्तर - जो कर्म जीव के अनुजीवी अर्थात् भावस्वरूपी गुणों को घात करने में निमित्त हों वे घातिकर्म हैं और जो कर्म आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न हों उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं।
प्रश्न - ज्ञान पर आवरण डालनेवाले कर्म को ज्ञानावरण और दर्शन पर आवरण डालनेवाले कर्म को दर्शनावरण कहते होंगे?
उत्तर - हाँ, सुनो ! जब आत्मा स्वयं अपने ज्ञानभाव का घात करता है अर्थात् ज्ञानशक्ति को व्यक्त नहीं करता तब आत्मा के ज्ञानगुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं और जब आत्मा स्वयं अपने दर्शन-गुण का घात करता है, तब दर्शन-गुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानावरण रूप से ज्ञानावरणी कर्म पाँच प्रकार का और चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनावरण तथा निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला एवं स्त्यानगृद्धिक भेद से नौ प्रकार का होता है।
प्रश्न - और मोहनीय कर्म.....................?
उत्तर - जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना माने या स्वरूपाचरण में असावधानी करे तब जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है - १. दर्शन मोहनीय, २. चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के ३ भेद हैं - १. मिथ्यात्व, २. सम्यक् मिथ्यात्व और ३. सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्व । २५ कषायें चारित्र मोहनीय के भेद हैं।
प्रश्न - अब घातिया कर्मों में एक अन्तराय और रह गया, उसका क्या कार्य है ?
उत्तर - जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के विघ्न में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे | अन्तराय कर्म कहते हैं। यह इन्हीं नामों से पाँच प्रकार का होता है।
प्रश्न - अब कृपया अघातिया कर्मों के विषय में भी बताइए?