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गया। अत: जीवादि का स्वरूप समझ कर मनुष्यभव को सार्थक करना चाहिए। आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त होता है, परन्तु यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेष रूप विकारी भावों को करता है, अत: दुःखी होता है। __प्रश्न - तो क्या मोह-राग-द्वेष दुःख के कारण हैं, हमने तो ऐसा सुना है कि कर्म दुःख के कारण हैं ?
उत्तर - नहीं भाई! जब यह आत्मा अपने स्वभाव को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेष रूप विकारी परिणमन करता है, तब आत्मा दुःखी होता है, उस दुःख में कर्मों का उदय निमित्त कहा जाता है। कर्म थोड़े ही आत्मा को दुःख देते हैं या बलात् विकार कराते हैं।
प्रश्न - यह तो ठीक है कि यह आत्मा अपनी भूल से स्वयं दुःखी है, ज्ञानावरणादि कर्मों के कारण नहीं; परन्तु वह भूल है क्या ?
उत्तर - परपदार्थ तो इष्ट-अनिष्ट हैं नहीं; परंतु यह जीव पूर्वोपार्जित राग-द्वेषरूप भावकर्म के कारण उन पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानकर पुन: नवीन मोह-राग-द्वेषरूप परिणमन करता है, यही इसकी भूल है।
प्रश्न - ये भावकर्म क्या होते हैं ?
उत्तर - कर्म के उदय में जो यह जीव मोह-राग-द्वेष विकारी भाव रूप होता है, उन्हें ही भावकर्म कहते हैं और उन मोह-राग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा (कर्मरज) कर्मरूप परिणमित होकर आत्मा से सम्बद्ध हो जाती है, उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। ये कर्म आठ प्रकार के होते हैं। इन आठ प्रकार के कर्मों में ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय तो घातिया कर्म कहलाते हैं और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अघातिया कर्म कहलाते हैं।
प्रश्न - घातिया और अघातिया कर्म से क्या तात्पर्य है ?
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